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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः समय कारण भी है। किंतु परिपकके नहीं । भातकी परिपक्वताके लिये अनेक भमि संयोगोंकी और मध्यमे होनेवाले चाबलोंके विक्लेदनोंकी सहायता अभिप्रेत है । ग्रंथों के अध्ययन करनेपर कोई विद्वान या वकील परीक्षा पास करलेता है। किंतु पूर्ण अनुभव प्राप्त करनेके लिये मनन, समय और अभ्यास तथा इनसे होनेवाले विद्वत्ताके विशिष्ट परिणमनोंकी आवश्यकता है। वैसे ही क्षायिकचारित्र भी क्षायिकपनेसे पूर्ण है। फिर भी मुक्तिरूप कार्यको उत्पन्न करानेमें उस क्षायिक चारित्रको कई विशेष सहकारी कारणोंकी अपेक्षा है । अत: चारित्रका पूर्णपना सिद्ध नहीं है। वर्तमानमें विवक्षाको प्राप्त हुए विशेष अपने कार्यको करनेमें कारणका अंतके क्षणमे प्राप्त होनापन ही संपूर्णता कही जाती है । मध्यवर्ती हजारों पयायोंके पूर्व, उत्तरभ रहनेवाली संपूर्ण पर्यायाम परस्पर यह अपने अपने कार्यके प्रति कारणका अन्त्य क्षणमें पास होनापन घट जाता है । और अभीतक वह मोक्षके लिये कारणकी संपूर्णता केवलज्ञानसे पहिले होनेवाले चारित्रके उत्पन्न नहीं हुयी है। क्योंकि उस बारहवें गुणस्थानस ऊपर चलकर भी उस पूर्णचारित्रकी भी अघातियोंको साग नष्ट करनेवाली सामर्यसे सहितपने करके वह पर्णता उत्पन्न होनेवाली है। ऐसी दशामें मला बारहवे गुणस्थानके चारित्रको हम परिपूर्ण कैसे कह सकते हैं ! कदापि नहीं। न च " यथाख्यातं पूर्ण चारित्रमिति प्रवचनस्यैवं पाधास्ति । तस्य क्षायिकत्वेन तत्र पूर्णत्वाभिधानात् । नहि सकलमोहक्षयादुद्भवच्चारित्रमंशतोऽपि मलवदिति शश्वदमलवदात्यन्तिकं तदभिष्ट्रयते। कोई आगमसे बाधा उपस्थित करे कि जब आप चारित्रकी पूर्णता चौदहवे गुणस्थानों बतलाते हैं। ऐसा कहनेपर तो " यथाख्यात चारित्र पूर्ण है, " इस प्रकार आगमवाक्यकी बाधा होती है । क्योंकि यथाख्यातचारित्र तो दशमै गुणस्थानके अंतमें ही होजाता है । सो यह भागमकी पापा नहीं समझना । क्योंकि उस आगममें उस चारित्रको चारित्रमोहनीयके क्षयसे जन्यपने स्वमाव करके पूर्णपना कहा गया है । जब कि सम्पूर्ण मोहनीय कर्मके क्षयसे उत्पन्न होरहा क्षायिकचारित्र एक अंशसे भी मलयुक्त नहीं है । इस कारण वह क्षायिकचारित्र सर्वदा ही अत्यधिक अनंत काल तक के लिये सर्व मंगोमै निर्मलपने करके पशंसित किया जाता है। कथं पुनस्तदसम्पूर्णादेव ज्ञानात्सायोपञ्चमिकादुत्पधमान तथापि सम्पूर्णमिति चेत् न, सकलश्रुताशेषतत्वार्यपरिच्छेदिनस्वस्योत्पत्तेः । कोई यहां पूंछता है कि क्यों जी ! फिर वह चारित्र क्षयोपशमसे होनेवाले अपूर्ण शानोंसे ही उत्पन्न होता हुआ तो भी सम्पूर्ण कैसे हो सकता है ? मताओ । भावार्थ-अपूर्ण ज्ञानसे तो अपूर्ण चारित्र होना चाहिये था। दशवे गुणस्थानमें पूर्ण ज्ञान नहीं है। द्वादशानका ज्ञान या सर्वावधि और विपुलमति ये पूर्ण ज्ञान नहीं माने हैं। पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है। अतः अपूर्ण ज्ञानसे
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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