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________________ ५२६ तवा चिन्तामणिः भादि समयवाले केवलज्ञानमें तथा चौदहवे गुणस्थान या सिद्धपरमेष्ठीके केवलज्ञानमें बालामका मी अंतर नहीं है। उसने ही उस्कृष्ट अनंतानंत संख्यावाले अविमाग प्रतिच्छेद सब केवलजानों में बराबर है। तम ज्ञानपूर्वका चारित्र व्यभिचरति । उस कारण ज्ञानगुणका चारित्रके पूर्ववर्तीपनेसे व्यभिचार नहीं है अर्थात् पूर्ण चारित्रके पहिले पूर्ण ज्ञान रहता है । चारित्र कभी ज्ञानपूर्वकपनका अतिक्रम नहीं करता है। प्रागेव क्षायिकं पूर्ण क्षायिकत्वेन केवलात् । नत्वघातिप्रतिध्वंसिकरणोपेतरूपतः ॥ ८५ ॥ पद्यपि केवलज्ञानकी उत्पचिसे पहिले ही चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयअन्य क्षायिकपने करके क्षायिकचारित्र पूर्ण हो चुका है, किन्तु वेदनीय आदि अपातिया कोके सर्वथा नष्ट करनेकी शक्तिरूप परिणामोंसे सहितपने स्वरूप करके अभी चारित्रगुण पूर्ण नहीं हुआ है। अतः तेरहवें गुणस्थानके पादिमें क्षायिक रत्नत्रयके हो जानेपर मी मुक्ति होनेमे विलम्ब है। केवलात्तत्यामेव क्षायिक यथाख्यातचारित्रं सम्पूर्ण ज्ञानकारणमिति न शंकनीयम् । तस्प मुक्त्युत्पादने सहकारिविशेषापेक्षितया पूर्णत्वानुपपत्तेः। विवक्षितस्वकार्यकरणेन्त्पक्षणप्राप्तत्वं हि सम्पूर्ण, तच्च न केवलात्मागस्ति चारित्रस्य, ततोऽप्यूज़मघातिप्रतिध्वसिकरणोपेतरूपवयासम्पूर्णस्य तस्योदयात् । जिस क्षायिक चारित्रका कारण आप जैनोंने केवलज्ञानको माना है, वह चारित्रमोहनीयके क्षयसे उत्पन्न हुआ पूर्ण यथाख्यातचारित्र तो केवलज्ञानसे अन्तर्मुहूर्त पहिले ही उत्पन्न होचुका है। फिर यह बारित्रके लिये ज्ञानको कारण माननेका कार्यकारणभाव कैसा है ! बताओ ! क्या बैन लोगोंने भी बौद्धोंके समान इस सिद्धांतको मानलिया है कि कार्य पहिले उत्पन्न हो जाते हैं और कारण पीछेसे पचासों वर्षोंतक पैदा होते रहते हैं । " तालाब खुदा ही नहीं, मगर मा दा | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार शंका नहीं करना चाहिये। क्योंकि हम जैनौका यह सिद्धांत है कि कारणों में मिन्न भिन्न कार्योंकी अपेक्षासे परिपूर्णता भी न्यारी न्यारी है। मिट्टी द्वारा शिक्क, छत्र, खास, कोश, कुशूल बनकर पीले घर बनता है । छत्रको ही घटके प्रति झट कारणता नहीं है। भात पकाने के लिये चूल्हेमें आमि जलाकर उसके ऊपर बर्तनमें पानी रखकर चावल डाक दिये हैं। यहां पहिलेके अमि संयोगसे ही चावलों में पाक प्रारम्भ होजाता है। किंतु पाककी पूर्णता घडीभर बादके अंत समयवाले अभिसंयोगसे होती है। मध्यवर्ति अमिसयोग बीचमें होनेवाले अर्द्धपाकोंके कारण हैं। यदि कोई अप-पके मातको बनाना चाहे तो दे पीके मिसंयोग उस भष-पके मासके
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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