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________________ २७८ सत्ताविसामान ...................................--. -..-- -..-.rnvr.mmmcomans. ........ ........... ......... जैनोंके दूसरे दोष देनेमें चार्वाकका जो फिर यह मन्तव्य है कि हम चैतन्यको जीवित शरीरका ही गुण मानते हैं, मरे हुए शरीरका गुण नहीं, जिससे कि वहां चैतन्यमें पायेन्द्रिमों के द्वारा अग्राह्यता होते हुए जीवित शरीरमें भी ज्ञानको उन बहिरक इंद्रियोंका विषषपना आपादन किया जाय । मावार्थ-चैतन्यको न हम मृतशरीरका गुण मानते हैं और बाहिरङ्ग इंद्रियोंसे प्राध भी नहीं मानते हैं फिर हमारे ऊपर व्यर्थ ही कटाक्ष क्यों किया जाता है | ग्रंथकार कहते हैं कि चार्वाकोंका जो मतम्य है वह भी प्रशंसनीय नहीं है क्योंकि यहां मी पहिले कहे हुए दोषोंका ही प्रसंग आ जाता है अर्थात् चैतन्यकी ज्ञप्ति कसे भी नहीं, हो सकेगी | आप स्वसंवेदनप्रत्यक्षको मानते नहीं हैं और बहिरंग इंद्रियोंसे चैतन्य जाना नहीं जाता है। फिर चैतन्यके जाननेका आपके पास क्या उपाय है ! बताओ ! अभ्युपगम्योज्यसे। चार्वाकके मनको कुछ देर के लिये स्वीकार कर आचार्य कहते हैं कि जीवस्कायमणोऽप्येष यद्यसाधारणो मतः । प्राणादियोगवन्न स्यात्तदानिन्द्रियगोचरः ॥ १४१ ॥ पाकिसे हम पूछते हैं कि यह चैतन्य क्या जीवित शरीरका असाधारणगुण है, मा साधारण गुण है ! बताओ । यह चैतन्य यदि पाणवायु, इन्द्रिय, वचन और आयुष्य कर्मके संयोगके समान जीवितशरीरका ही अन्य न मिल सके ऐसा असाधारण गुण माना है सब तो वह चैतन्य अन्तरंग मन इंद्रियसे माह्य नहीं होना चाहिये क्योंकि मौतिकशरीरके असाधारण कहे गये प्राणवायु, उदरामि, लार, शुक आदिके संयोगरूप गुण अभ्यन्तर मनके द्वारा गृहीत नहीं होते हैं। जीवस्काये सत्युपलम्भादन्यत्रानुपलम्माभायमजीवत्कायगुणोऽनुमानविरोधात् किं तहि यथा प्राणादिस्योगो जीवत्कायस्यैव गुणस्तथा गोषोऽपीति चेत्, तदेवेन्द्रियगोचरः स्मात् । न हि प्राणादिसंयोगा स्पर्शनेन्द्रियागोचरः प्रतीतिविरोधात् । । शरीरके जीवित रहनेपर चैतन्य देखा जाता है और इसके अतिरिक्त लोष्ठ या शव चैतन्य नहीं देखा जाता है । इस हेतुसे यह चैतन्य मृतकायका गुण नहीं हैं अन्यथा उक्त अनुमानसे विरोध भावेगा, तो क्या है ! इस पर हम चार्वाक कहते हैं कि जैसे प्राण, वचन, हस्त, पित्चामि आदिके संयोग जीवित शरीरकेही गुण हैं उसी प्रकार चैतन्य भी जीवित शरीरका एक असाधारण गुण है। यदि इस प्रकार चार्वाक कहेंगे तो हम अन कहते है कि प्राणवायु, वचन, भाविके संयोगके समान ही चैतन्य भी बाह्य इन्द्रियोंका विषय हो जावेगा मनका विषय
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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