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तत्वार्थ चिन्तामणिः
डरोहविगमज्ञानावरणसत्तमुद्संक्षयात्मकतोश्च भेदस्तद्भिदि सिद्धयति ॥ ६५ ॥
कारणों के भेदसे भी कार्यमेद माना जाता है । सम्यग्दर्शनका कारण तो दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षयोपशम और क्षय होना है तथा सम्यग्ज्ञानका कारण ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम या क्षय होना है । एवं सम्यक्चास्त्रिका चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशम, उपशम और क्षय होना कारण है । इन कर्मध्वंसरूप हेतुओंके भेदसे भी कार्यों में भेद होना सिद्ध होजाता है । अतः उस कार्यभेद होने में कारणोंका भेद ज्ञापक हेतु है । कारक भी है । छन्दके दूसरे और तीसरे पाद समास होजाना या सन्धि कर देना न्यायग्रंथों के लिये सहा है ।
दर्शन मोहविगमज्ञानावरणध्वंसवृत्तमोहसंक्षयात्मका हेतवो दर्शनादीनां भेदमन्तरेण न हि परस्परं भिन्ना घटन्ते येन तद्भेदात्तेषां कथञ्चिद्भेदो न सिद्धयेत् ।
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दर्शन मोहनीय कर्मका दूर होना और ज्ञानावरण कर्मका विघट जाना तथा चारित्र मोहनी - यका अच्छा नाश हो जानास्वरूप भिन्न भिन्न अनेक कारक हेतु तो कार्यभूत दर्शन, ज्ञान, चारित्रोंके भेद बिना परस्पर भिन नहीं घटित हो सकते हैं। जिससे कि उन हेतुओंके भेदसे उन कार्योंका कथञ्चित् भेद सिद्ध न होथे, अर्थात् कारणोंके मेदसे कार्यमेद होना अनिवार्य है ।
चक्षुराद्यनेककारणेनैकेन रूपज्ञानेन व्यभिचारी कारण मेदो भिदि साध्यायामिति चेन, तस्यानेकस्वरूपत्वसिद्धेः । कथमन्यथा भिन्नयवादिवीजकारणा यवांकुरादयः सिध्धेयुः परस्परभिन्नाः ।
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हेतुभेदसे कार्यभेदका अनुमान करनेमें दी गयी व्यातिके व्यभिचार दोषको कोई दिखलाता है कि चक्षु, आलोक, आत्मा, मन, पुण्य, पाप आदि अनेक कारणोंकरके एक रूपका ज्ञान होता है । यहां कारण अनेक हैं और कार्य एक है। अतः भेदको सिद्ध करनेमें जैनकी ओर ( तरफ ) से दिया गया कारणभेद हेतु व्यभिचारी है। आचार्य कहरहे हैं कि इस प्रकार नहीं कहना चाहिये । क्योंकि एक माने गये रूपज्ञानमें भी अनेकस्वमावपना सिद्ध है । रूपके ज्ञानमें नेत्रजन्यता स्वभाव न्यारा है और आमजन्यता धर्म पृथक् है, आदि। यदि ऐसा नहीं मानकर यानी अनेक कारणजन्य एक कार्यमें भिन्न धर्म न होते तो मिन्न मिश्र जौ, गेहूं, चना आदिके बीजोंको कारण मानकर न्यारे न्यारे जौके अंकुर, गेहूंके अंकुर, जौकी बाल, गेहूंकी बाल, चनाके होरा आदि परस्पर में एक दूसरेसे भिन्न भिन्न कार्य भला कैसे सिद्ध होजाते ? बताओ । अर्थात् पृथ्वी, घाम, पानी, किसान, वायु, आदिकी समानता होते हुए भी अत्यल्प बीजके भेदसे बढे बढे वृक्षरूप कार्य भिन्न भिन्न बन जाते हैं। एक औषधि भिन्न भिन्न अनुपानोंके भेदसे नाना रोगोंका
अन्य प्रकार मानोगे,