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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः 1 प्रशम कर देती है । तैलके दीपकी कलिकाका और वृत्तदीपककी कलिकाका तथा बिजलीकी कालकाका परिणाम (वासीर) न्यारा न्यारा है । अणु ब्रह्मचारिणी भी स्त्रीके चतुर्थ स्नान के अनन्तर कस्मात् क्रोधी या काले पुरुषके दीख जानेपर गर्भस्थ जीवकी प्रकृति, आकृतिमें, अंतर आ जाता है । सेव ( फल ) स्वाकर पेडा खाना और पेडा खाकर सेव खाना इस फाल्व्युत्क्रमसे ही रासन - प्रत्यक्षरूप अर्थक्रियाओं में अंतर आ जाता है । इन दृष्टांतोंसे सिद्ध है कि जितने कारणोंसे कार्य बना है, उन सबकी ओर से कार्य में भिन्न भिन्न स्वभाव आगये हैं। दालमें पढे हुए हल्दी, मिर्च, धनिया, जीरा, नमक ये बात, पित्त, कफके दोषोंको दूर करते हैं और पाचन शक्तिको बढाते हैं, स्वाद बदल देते हैं | ५०७ न चैककारण निष्पाद्ये कार्यैकस्वरूपे कारणान्तरं प्रवर्तमानं सफलम्। सहकारित्वात्सफलमिति चेत्, किं पुनरिदं सहकारिकारणमनुपकारकमपेक्षणीयम् १ तदुपादानस्योपकारकं तदिति चेन, तत्कारणत्वानुषंगात्, साक्षात्कार्ये व्याप्रियमाणमुपादानेन सह तत्करणशीलं हि सहकारि न पुनः कारणमुपकुर्वाणम् । तस्य कारणकारणत्वेनानुकूलकारणत्वादिति चेत्, तर्हि सहकारिसाभ्यरूपतोपादानसाध्यरूपतायाः परा प्रसिद्धा कार्यस्येति न किञ्चिदनेककारणमेकस्वभावम्, येन हेतोर्व्यभिचारित्वाद्दर्शनादीनां स्वभावभेदो न सिध्येत् । यदि कार्यमें एक ही स्वभाव माना जावे और वह एक कारण के द्वारा बना दिया जावे, तब तो उस कार्य में प्रवृत्ति करनेवाले अनेक दूसरे कारण विचारे सफल नहीं हो सकेंगे । माघार्थ -- एक स्वभाववाला कार्य एक कारणसे ही बन जावेगा। फिर उसके लिये अनेक कारणोंके ढूंढनेकी क्या आवश्यकता है । किन्तु जैन, नैयायिक आदि सर्व ही वादियोंने प्रत्येक कार्यके उपादान कारण सहकारी कारण और उदासीन कारण आदि अनेक कारणोंसे उस एक कार्यकी उत्पत्ति मानी है । यदि यहां कोई यों कहे कि दूसरा कारण पहिले कारणका सहकारी है । अतः उपादानका सहायक हो जाने से सफल है । ऐसा कहनेपर तो फिर हम जैन पूंछते हैं कि यह सहकारी कारण क्या कार्यके प्रति उपकार न करता हुआ ही कार्यको अपेक्षित हो रहा है ! यताओं । यदि इसका उत्तर आप यह देवें कि वह सहकारीकारण उपादान कारणका सहायक है । साक्षात् कार्यका उपकारकर्ता नहीं है । एक स्वभावाला कार्य तो केवल एक उपादानकारण से बन जायेगा | उपादानं सहकरोति इति सहकारी " जो उपादानकारणको सहायता मदत ) पहुंचाता है, सो बह उत्तर तो ठीक नहीं है। क्योंकि तब तो वह सहकारी कारण उपादान कारणका कारण बन जायेगा | कार्यका सहकारी कारण न बन सकेगा । 16 यदि आक्षेपक आप सहकारी कारणका यह अर्थ करें कि " उपादानेन सहकरोति कार्य " जो उपादान कारणकी परम्परा न लेकर सीधां ही कामे उपादान कारणके साथ व्यापार करता
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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