SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः तथा जिनका कार्य free fमन होता है, वे सर्वथा एक नहीं होते हैं। सम्यग्दर्शनका कार्य घंटे श्रद्धान यानी मिध्यात्वका नाश करदेना है। और सम्यग्ज्ञानका कार्य मिथ्याज्ञानका स कर देना है तथा सम्यकूचारित्रका कार्य कुचारित्रको निवृत्त करना है । अतः म्यारे लक्षणोंवाले दर्शनादिकों के ये मिश्र भिन्न कार्य एकांतरूपसे अभेद माननेमें नहीं सम्भवते हैं। ५०५ दर्शनस्य हि कार्य मिथ्या श्रद्धानविच्छित्तिः संज्ञानस्य मिथ्याज्ञानविच्छित्तिः, सच्चारित्रस्य मिथ्याचरणविच्छित्तिरिति च भिन्नानि दर्शनादीनि भिन्नकार्यत्वात् सुखदु:खादिवत् । पावकादिनानैकांत इति चेन्न तस्यापि स्वभावमेदमंतरेण दाहपाकाद्यनेक कार्यकारित्वायोगात् । , आला में सम्यग्दर्शन गुणके प्रगट होनेपर निश्चय करके उसका कार्य मिथ्या श्रद्धानका नष्ट हो जाना है । और सम्यग्ज्ञानका प्रयोजन मिथ्याज्ञानको दूर कर देना है । एवं समीचीन वारिका फल तो मिय्या चारित्रका मलब कर देना है। इस कारण हम अनुमान करते हैं कि दर्शन ज्ञान और चारित्र में तीनों पर्यायें ( पक्ष ) भिन्न हैं ( साध्य ) क्योंकि इनका भिन्न भिन्न कार्य देखा जा रहा है (तु) जैसे कि सुख, दुःख, दान, लाभ आदि पर्यायें निराली हैं । सुखका का अनुकूल वेदन होना है। दुःखका कार्य अनिष्ट या प्रतिकूल अनुभव है आदि । यदि यहां कोई यह दोष देवे कि अभि एक है वह पानीको सुखा रही है, भातको पका रही है, ईन्धनको जला रही है। अतः एकके भी अनेक कार्य देखे जाते हैं। तब तो आप जैनोंका भिकार्य हेतु अनेक कार्य करनेवाले अमि, नर्तकी, लवन आदिसे व्यभिचारी हुआ । यों यह दोष देना ठीक नहीं है। क्योंकि उस अभि, सोंठ आदिको भी अपने अनेक भिन्न भिन्न स्वभावोंके भेद हुए बिना जलाना, पकाना, सुखाना आदि अनेक कार्योंका करदेनापन नहीं बच सकेगा । मावार्थअभि यद्यपि अशुद्ध एक पुद्गल द्रव्य है। किंतु उसमें अनेक स्वमात्ररूप शक्तियां विद्यमान है । अनेक स्वभावसे ही अनेक कार्य हो सकते हैं। ऐसा जैन सिद्धांत है। चार हाथकी एक लाठीको बीचमें पकड़कर आढी उठाओ ! सब उस लाठीकी दूसरी शक्तियां कार्य कर रही हैं और उसी लाठीको तीन हाथ एक ओर और एक हाथ दूसरे छोरपर छोडकर मध्यमेसे भाडी उठाने पर लाठीके अन्य स्त्रभाव कार्यकारी है, जिन स्वभावका कार्य हमें हाथोंपर बल लानेसे प्रतीत हो जाता है। किसी भूमि पर पडी उस लाठीको केवल एक अंगुल अंतभागमै पकड कर बड़ा भारी मल भी सीधी नहीं उठा सकता है, यों लटुमें वेग या शोकके परिणाम अनेक हैं । अतः दर्शन ज्ञान और मात्रिको आमा के भिन्न भिन्न परिणाम मानने चाहिये। तभी तो उनके अनेक भिन्न कार्य दीख रहे है। अब श्रीविद्यानंद आचार्य कारणोंके भेदसे दर्शन आदिका भेद सिद्ध करते हैं । 64
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy