________________
५०४
तत्त्वामचिन्तामणिः
सामानाधिकरण्यस्य कथञ्चिदिद्या विना । नीलोत्पलतादीनां जातु कचिददर्शनात् ॥ ६३ ॥
दूसरे पक्ष के अनुसार यदि दर्शने, ज्ञानमें या ज्ञान, चारित्रमे देशके अमेद दोनेसे अभेद माना जावेगा, तब तो काल आकाश, काळ जीव आदि पदार्थों की 'भिन्नता कैसे हो सकोगी ? चिन आकाश के प्रदेशोंपर जीव द्रव्य है, वहां अनेक जातिके पुगल मन्त्र भी विद्यमान हैं। कालाणु भी रखे हुए हैं। आकाश तो वहां है हो । अतः न्यभिचारदोष हो जानेसे देशका जमेद होना भी पदार्थों के अभेदका कारण नहीं है। तथा तीसरा पक्ष लेने पर समान नविकरणपनेसे अभेद मानोगे तो उस सामानाधिकरण्यसे तो भिन्नता ही भली प्रकार सिद्ध हो जावेगी, सामानाधिकरण्य हेतु तो प्रत्युत पदार्थों के भेदको सिद्ध करता है । अतः तुम्हारा हेतु विरुद्ध है। देखिये । समान है अधिकरण जिनका ऐसे दो, तीन, चार आदि पदार्थोंौको समानाधिकरण कहते है और जन समानाधिकरण दोरहे पदार्थों का जो भाव है, वह सामानाधिकरण्य है। पट और कलशंरूप एक पदार्थमै सामानाधिकरण्य नहीं बनता है। नीका कमल है। यहां नीकपने और कमरूपनेका एक फूलमें समानाधिक रणता है । तभी तो यहां व्यभिचार होनेपर कनेवार समाय न माया है। को छोटकर नीलापन जानुन, नीलमणि, कम्बल च्यादिमें भी रह जाता है और नौरूपने को छोडकर कमरूपना मी शुभ, काल, पीछे कमलों में ठहर जाता है। दोनोंका सांकर्म नील कमल में है । अतः कथम्बिद are बिना समानाधिकरणपना नील उत्पक्ष, वीरपुरुष, आदि कहीं भी कभी देखा नहीं गया है । सामानाधिकरण्य हेतुसे अमेदको सिद्ध करने चले थे, किंतु भेद सिद्ध होगया। साध्याभावके साथ व्यातिको रखनेवाला हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है
न हि नीलोत्पलत्वादीनामेकद्रम्मवृत्तितया सामानाधिकरण्यं कमञ्चिद्भेदमन्तरेपोपपद्यते येनैकजीवद्रव्यवृत्तित्वेन दर्शनादीनां सामानाधिकरण्यं तथाभेदसाधनाविरुद्धं न स्यात् ।
,
नीरूपना और उत्पलपना, तथा रक्तपना सभा पटपना, एबं धूर्तपना और श्रृंगारूपना, आदि की एक द्रव्यमे वृतिता हो जानेसे समानाधिकरणता कथम्बित मेदके बिना नहीं बन सकती है । जिससे कि एक जीव द्रव्यमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र गुणोंके विद्यमान रह जानेसे बन गया समानाधिकरणपना भी इस प्रकार मेदको सिद्ध करनेवाला होनेके कारण अभेद सिद्ध करनेमें विरुद्ध वाभास न होता । अर्थात् — सामानाधिकरण्य हेतु विरुद्ध है।
1
मिथ्या श्रद्धामविज्ञानचर्याविच्छित्तिलक्षणम् ।
कार्य भिनं हगादीनां नैकान्ताभिदि सम्भवि ॥ ६४ ॥