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स्वार्थचिन्तामणिः
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द्रव्यदृष्टिसे विचार जावे तो आत्मद्रव्य एक ही व्यवस्थित होरहा है । अतः उसके भेदरूपों का उपदेश देना कहां व्यवस्थित होगा ! भावार्थ- संसारी आत्मा और मुक्त आत्मामें तथा मिथ्यादर्शन, मिध्याज्ञान, प्रमाद और कषायोंसे परिणत आत्मामें और संवर, निर्जरा, व्रत, समिति, तपस्या आदि परिणामोंसे युक्त हुये आत्मामें कोई अंतर नहीं है । द्रव्यको छूनेवाली निश्चय नयसे जैसे ही एकेन्द्रिय जी की आत्मा है, वैसे ही सिद्धपरमेष्ठी की आत्मा है। किंतु सूत्रकार जब संसार, मोक्ष, सम्यग्दर्शन, कषाय आदिका भेदरूप उपदेश देरहे हैं, इस कारण उससे ही अनुमान कर लिया जाता है कि सूत्रकारको भिन्न भिन्न पर्यायरूप अर्थोके प्रधानताकी विवक्षा है। क्योंकि पर्यायरूप अर्थके प्रवानकी उस विवक्षा के बिना गुणपर्यायों के भेदका उपदेश देना बन नहीं सकता था ।
ये तु दर्शनज्ञानयोर्ज्ञानचारित्रयोर्वा सर्वथैकत्वं प्रतिपद्यन्ते ते कालाभेदाद्देशा भेदात्सामानाधिकरण्याद्वा ? गत्यन्तराभावात् । न चैते सद्धेतवो ऽनैकान्तिकत्वाद्विरुत्वाचेति निवेदयति
जो प्रतिवादी सम्यग्दर्शन और ज्ञानका अथवा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका सर्वथा अमेद होना समझ रहे हैं, वे प्रतिवादी क्या कालके अभेदसे या देशके अभेदसे अथवा समान अधिकरण से उन गुणोंका अभेद कहते हैं ! बताओ | क्योंकि अभेद सिद्ध करने में उन तीन के अतिरिक्त अन्य कोई भी उपाय नहीं है । प्रकृतमें अभेदको सिद्ध करनेके लिए दिये गये वे तीनों हेतु तो सद्धेतु नहीं हैं। किंतु व्यभिचारी और विरुद्ध होनेके कारण देत्वाभास हैं। इसी बात को ग्रंथकार निवेदन कर देते हैं ।
कालाभेदादभिन्नत्वं तयोरेकान्ततो यदि ।
तदैकक्षणवृत्तीनामर्थानां भिन्नता कुतः ॥ ६१ ॥
उन दर्शन और ज्ञान या ज्ञान और चारित्रमें फालका अमेद हो जानेसे यदि एकांतरूपसे अभेद सिद्ध करोगे, तब तो एक समय में रहनेवाले अनेक घट, पट आदिक अर्थोंकी मित्रता कैसे होगी ? बतलाइये, भावार्थ - जिनका काल अभिन्न है, ऐसे पदार्थों को अभिन्न मान लिया जाने तो समान समयवाले अनेक पदार्थ एक हो जायेंगे । वर्तमानमै 'विद्यमान हाथी, घोडे, मनुष्य, घट, पट आदि अनेक पदार्थ एक स्वरूप हो जायेंगे । यह बड़ा मारी सांकर्य दोषका पकरण है । और हेतु व्यभिचारी है।
देशाभेदाद भेदश्चेत् कालाकाशादिभिन्नता ।
सामानाधिकरण्याच्चेत्तत एवास्तु भिन्नता ॥ ६२ ॥
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