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________________ सत्त्वार्थचिन्तामणिः --------- ---- ..... ज्ञान गुण (पक्ष) चारित्रगुण स्वरूप ही नहीं हैं। क्योंकि सम्यग्ज्ञान उस चारित्रके लक्षणसे भिन्न लक्षणवाला है ( हेतु ) जैसे कि सम्यग्दर्शनका लक्षण चारित्रसे भिन्न है ( अन्वयदृष्टान्त) ज्ञानका लक्षण तत्वोंका निर्णय करना है और आत्महत्यकी केवल स्वात्मामें स्थिति हो जाना चारित्र है। इस प्रकार यहाँ मानने हमको कोई अपने सिद्धान्तसे विरोध नहीं पड़ता है । क्योंकि इस सूत्रम सूत्रों को बनानेवाले उमास्वामी महाराजने पर्यायार्थिक नयकी प्रधानताको विवक्षित किया है। यदि द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानता विवक्षित होती तब तो कतिपय पर्यायोसे परिणत एक आत्मद्रव्य ही शुद्ध आत्माकी प्राप्तिरूप मोक्षका गर्म हो जाता रहा माझा नामका काम करना पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे ही ठीक पड़ता है। द्रव्यार्थस्य प्रधानत्वविवक्षायां तु तत्त्वतः । भवेदात्मैव संसारो मोक्षस्तद्धेतुरेव च ॥ ५९ ॥ तथा च सूत्रकारस्य क तद्भेदोपदेशना । द्रव्यार्थस्याप्यशुद्धस्यावान्तराभेदसंश्रयात् ॥ ६॥ द्रव्यार्थिक नमके विषय माने गये द्रव्यरूप अर्भके प्रधानताकी विवक्षा होनेपर तो वास्तविक रूपसे आत्मा ही संसार है और भास्मा ही मोक्ष होसकता है तथा उन संसार और मोक्षका कारण मी भामा ही है। भिन्न भिन्न अनेक पर्यायोंका अविष्वग्मावपिंडरूप आत्माद्रव्य एक ही है । नयके द्वारा द्रव्यको जाननेपर भिन्न भिन्न पर्याय नहीं जानी जासकती हैं। और वैसा होनेपर सूत्र बनानेवाले उमास्वामी महाराजका उस आत्माके मिन्न भिन्न गुणोंका उपदेश देना भला कहां बन सकता है ! दूसरे द्रव्यसे वैधे हुए अशुद्ध द्रव्यको कहनेवाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय मी महान् अमेदसे छोटे अभेदका माश्रयकर प्रवर्तता है। अतः अशुद्ध द्रव्यकी विवक्षा होनेपर भी भेदरूप गुणोंका उपदेश देना नहीं बनता है। हाँ 1 प्रमाणोंसे या पर्यायाथिक नयसे भेदकी देशना होना सम्भवे है। यथा समस्सैक्यसंग्रहो द्रष्यार्थिक शुद्धस्तथावान्तरैक्यग्रहोप्यशुद्ध इति तद्विवक्षा संसारमोक्षतदुपायानां भेदाप्रसिद्धरास्मद्रव्यस्यैवैकस्य व्यवस्थानात्त ददेशनाव व्यवतिष्ठेत ? तता सैव पत्रकारस्य पर्यायार्थप्रधानवविवक्षा गमयति, वामन्तरेण भेददेशनानुपपचेः । जैसे सम्पूर्ण गुण और पर्यायोंकी अखण्डपिण्डरूप एकताको संग्रह करनेवाला शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है, वैसे ही फतिपय गुण और पर्यायोंकी मध्यवर्ती एकताको ग्रहण करनेवाला नय भी अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है । इस प्रकार दोनों शुद्ध अशुद्ध द्रव्यार्थिककी विवक्षा होनेपर संसार, मोक्ष तथा उनके उपाय माने गये संसारकारण और मोक्षकारण तत्वोंका भेद करना प्रसिद्ध नहीं है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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