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________________ सत्वार्थचिन्तामणिः योग्य कर्म बंध गये है प्रकार कहना कैसे भी यदि आप वैषायिक यों कहे कि तस्यज्ञानीके जन्मान्तरमे फळ देने तो फर्म दूसरे जम्ममें फळ भोगकर नष्ट किये जा सकते हैं। यह इस ठीक नहीं है। क्यों कि जिस जीवके संपूर्ण तत्त्वोंका प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान उत्पन हो गया है। उस जीवा अन्य जम्मोंको धारण करना असम्भव है। वह तो उसी जन्मसे मोक्ष प्राप्त करेगा । यदि आप यों कहे कि उस ही जन्म मोक्ष प्राप्त करनेवाले उस प्राणीके जो नवीन धर्म अधर्म उत्पन्न होते हैं, वे उस ही जन्ममें फल देनेकी शक्तिपने करके प्रगट हुए हैं। अतः उसकी उसी एक जन्मसे मोक्ष हो जावेगी । इस प्रकार भी आप नैयायिक नहीं कह सकते हैं। क्योंकि आपके कथनमे कोई प्रमाण नहीं है। अबतक जब ही कर्मबंध हुआ है, तभी उसमें सागर, परब, और realist स्थिति ही है, ये अनेक जन्मों में ही मोगे जा सकते है । यहीं धारा अनादि कालसे तत्वज्ञान उत्पन्न होने रहिले समय अनु मंत्री रही हैं। यदि आप यह अनुमान प्रमाण बोले कि उस ही जन्ममें मोक्ष प्रासिकी योग्यता वाले तत्त्वज्ञानी जीवके जो पुण्य पाव उत्पन्न होते हैं ( पक्ष ) वे किसी समाधि या पुण्य क्रियारूप अनुष्ठानसे उस जन्ममें ही फल देनेके लिये समर्थ हैं, ( साध्यदल ) क्योंकि वे उसी जन्ममें मोक्षप्राप्ति की योग्यतावाले तत्त्वज्ञानी के धर्म अधर्म हैं (तु) इस प्रकार आपका अनुमान भी युक्तियोंसे रहित है। कारण कि आपके हेतुकी साध्य के साथ व्याप्ति साध्यके विना हेतुका न रहना ) नहीं बनती है | यदि आप यों व्याधि बनावेंगे कि जो धर्म, अधर्म, दूसरे जन्मों में फल देनेकी शक्ति रखते हैं । वे उसी जन्म में मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवके योग्य धर्म अधर्म नहीं है। जैसे कि अनेक जन्मों में मोक्ष मात करनेवाले हम लोगों के धर्म अधर्म है। इस मकार साध्यके न रहनेपर हेतुकी उपपति ( सिद्धि ) न होना रूप व्याप्ति बन ही जाती है। ऐसा कहोगे तो हम कहते हैं कि इस प्रकार व्यापकी व्याप्ति तो तब बन सकती थी, यदि उस जन्ममें मोक्षकी योग्यतावाले जीव धर्म अथर्मोका दूसरे जन्मों में फल देनेकी शक्ति के साथ विशेष होता। दूसरे प्रकार से आपकी व्याप्ति नहीं मन सकती है। किंतु हम देखते हैं कि उसी जन्ममें मोक्ष प्राप्तिकी योग्यतावाले जीवके यदि सीघ्र पाप या पुण्यका उदय हो जाता है तो प्रधान मुनीश्वर भी द्वीपायन या सुकुमालके समान अन्य जन्म धारण कर नरक या सर्वार्थसिद्धिमें अनेक सागर पर्यंत पाप, पुण्यका फल भोगते रहते हैं । ६ 1 ४९४ तस्य तेनाविरोधे राजन्मनि मोक्षाईस्यापि मोक्षाभावप्रसंगात्, विरुध्यत एवेति चेत् न तस्य जन्मान्तरेषु फलदानसमर्थयोरपि धर्माधर्मवोरुपक्रमविशेषान् ॥ फलोपभोगेन प्रक्षये मोक्षोपपत्तेः । है कि आप कहै कि उसी जन्मने मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीवके उन पुण्य पापका यदि उस दूसरे जन्मे फल देनेकी योग्यतासे विरोध न होता तो उस ही जन्ममें मोक्षके योग्य भी rtent it state अभावका प्रसंग होजाता । अतः सद्भव मोक्षगामी जीवके धर्म अपने का
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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