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________________ तत्त्वाचिन्तामणिः - . . यदि में बंधे हुए कर्म अपने अपने यथायोग्य कालमें उदय. आकर भोगनेवाले आस्माको फलका उपभोग करा देते हैं, तब पीछे उन काँका क्षय हो जाता है, ऐसा पक्ष मानते हैं, तब तो सैकड़ों करोड कल्पकालो करके भी इस फलोपभोगसे मला कोका क्षय किस आत्मा हो सकेगा । अर्थात् कोई आत्मा भी मुक्त न होगा। क्योंकि प्रत्येक कर्म जब अपना फल देगा, उस समय आसाम राग, द्वेष, अमिलाषाएं मादि अवश्य उत्पन्न हो जावेगी और उनसे पुनः नवीन काका न्य हो जायेगा और नवीन बंध होनेपर यथायोग्य. कालमें उन काँका उदय आनेसे उपभोग करते हुये फिर भात्माके राग, द्वेष श्रादि भाव उत्पन्न होगे ही, जो कि पुनः बन्धके कारण हैं। यह क्रम कभी न टूटेगा, तथा च आत्माकी अनंत कालतक भी मोक्ष न हो सकेगी। व्यकर्मसे भाव कर्म और भावकर्मसे व्यकर्मकी धारा चलती रहेगी। न हि वजन्मन्युपात्तयोर्धागो जन्मालानाशाहाल लोप• भोगेन जन्मान्सराहते कल्पकोटिशतैरप्यात्यन्तिकः क्षयः कर्तुं शक्यो, विरोधात् । - उस विवक्षित बम प्रहण किये गये ऐसे भविष्यके अनेक जन्म जन्मान्तरों में फल देनेकी शक्तिवाले पुण्य पाप कोका यथायोग्य कालमें फलोपभोग यदि होगा तो भविष्यमें होनेवाले दूसरे भनेक जन्मोंके बिना सैकड़ों करोड कल्पों करके भी फलों के उपभोग द्वारा उन कर्मोंका सड़ाके लिये पूर्ण रूपसे क्षय करना शश्य नहीं है। क्योंकि विरोध है । भावार्थ---एक ओर यह मानना कि बिना फल दिये हुए कमाका क्षय होता नहीं है और दूसरी ओर यह कहना कि तत्त्वज्ञानसे उसी जन्म भोक्ष हो जाती है। ये दोनों बात विरुद्ध है । मला विचारो तो सही कि तत्त्वज्ञान मुक्त जीवके तो होता नहीं है। किंतु संसारी मनुष्यों के ही होगा। उनको पहिले कालों में बांधे हुए संचित कर्म भी विधमान है। बे कर्म जब फल देंगे तभी अनेक जन्मांतरों में फल देनेवाले कर्म पुनः बंध जावेंगे। द्रव्य, क्षेत्र, आदि सामग्री न मिलनेसे या तपस्था द्वारा बिना फल दिये हुए काँका सर जाना और प; या उदीरणा, अपकर्षण आदिकी विधिसे भविष्या जानेवाले काँका वर्तमान थोडे कालमें फल देकर झहजाना इसको आप स्वीकार नहीं करते हैं। ऐसी दशामें तो किसीकी मोक्ष नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्येक कर्म यथायोग्य कालमें फल देकर ही नष्ट होते हैं । यह आग्रह समीचीन नहीं है। जन्मान्तरे शक्य इति चेन्न, सायादुत्पत्रसकलतत्त्वज्ञानस्य जन्मान्तरासम्भवात्, न व तस्य तज्जन्मफलदानसमर्थवे च धर्माधर्मों प्रादुर्भवत इति शक्यं वकुं, प्रमाणाभावात् । तज्जन्मनि मोक्षार्हस्य कुतश्विदनुष्ठानाद्धर्माधर्मों वज्जन्मफलदानसमर्थों प्रादुर्भवतः, तज्जन्ममोबाइधर्माधर्मत्वादित्यप्ययुक्तं हेतोरन्यथानुपपत्यभावात् । यौ जन्मान्तरफलदानसमर्थों तौ न तज्जन्ममोक्षाहधर्माधर्मों, यथासदादि धर्माधौ इत्यस्त्येव साध्याभाव साधनस्थानु पपपिरिति चेत्, स्यादेवम्, यदि तज्जन्ममोमाईधर्माधर्मवं जन्मान्तरफलदानसमर्थत्वेन विरुध्येत, नान्यथा।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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