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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १९५ 1 दूसरे जन्मों में फल देने के साथ अवश्य विशेष है ही । भावार्थ - ओ सद्भवमोक्षगामी जीवके धर्म धर्म हैं, वे अगले अन्य भवों में फल देनेके लिये समर्थ नहीं हैं । और जो अदृष्ट दूसरे जन्म फल देनेवाले हैं, वे तद्भव मोक्षगामीके पुण्य पाप नहीं हैं। हां, इस प्रकार कहोगे सो भी ठीक नहीं पडेगा। क्योंकि भविष्य के अनेक दूसरे जन्मोंमें फल देनेकी सामर्थ्यदाले धर्म, अधर्मका भी विशेष तपश्चर्याके द्वारा विशिष्ट उपक्रमसे फलोपभोग करके नाश करदेने पर उसी भवसे उस जीवके मोक्षकी सिद्धि होजाती है । मावार्थ अन्तस्केवळी या तद्भव मोक्षमामी कतिपय मुनि महाराजों के भी अनेक उपसर्ग होना शास्त्रों में लिखा हुआ है। वे साधु महाराज उत्तर जन्मोंमें फल देनेवाले कमको उपक्रम के कारण तप या उपरमकी योग्यता मिलने पर समाधि परिणामसे उनका फल भोमकर उसी जन्म में भट कर देते हैं । यदि वे खानु शुद्ध समाधिरूप परिणाम नहीं कर पाते सो वे अवश्य जन्मान्तरोको धारण कर पुण्य पापका फल भोगते । किंतु उन्होंने इस ही जन्ममै कमकी औपक्रममिक निर्जरा कर दीनी है। विशेष बात यह है कि उसी जन्ममें डेड गुणहानि प्रमाण द्रव्यके मोक्ष करने की योग्यता तो बहुतसे मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिके स्थल मामी गयी कर्मभूमिके मनुष्योंमें है। जोकि पुरुषार्थ न करनेके कारण अनेक महमें भी व्यथा नहीं हो पाती है। मोक्षकी प्रासि प्रधानता पुरुषायी है । जो सुनीश्वर कमोंके महार, उपसर्म आदिको जीतकर उकृष्ट शुक्रष्यानमै आरूढ होजाते हैं 1 वे असंख्य जन्मोंके संचित कमौका उसी समय ध्वंस करदेते हैं । यतः वैववादका आग्रह कर मोक्षकी योग्यतावाले जीवोंके पुण्य, पापके ध्वंस करनेमें कुचोय नहीं करना 1 1 यदि पुनर्न यथाकालं तज्जन्ममोक्षास्य धर्माधर्मौ तज्जन्मनि फलदानसमर्थों साध्येते, किं सपक्रमविशेषादेव संचितकर्मणां फलोपभोगेन प्रक्षय इति पक्षांतरमायातम् । ffer a मैया जैन सिद्धांत के अनुसार यो मशरलोगे कि उसी में मोक्ष जाने बाळे जीवके पहिले संचित किये हुए धर्म अधर्म यथायोग्य उस जन्ममें, उदय आकर फल देने में . समर्थ है, हम यह नहीं सिद्ध करते हैं, तब तो क्या कहते हैं ! सो सुन्दो । तप या समाधिरूप विशेष उपक्रम पळसे ही पहिले इकडे हुए कर्मों का फलके उपभोग करके बच्छा नाश हो जाता है, ऐसा मानने पर तो दूसरा पक्ष आया ही कहना चाहिये । भावार्थ -- आपने कर्मोकी औपक्रमिक निर्जरा मानकर पहले ही उठाये हुए दो प्रश्नोंसे द्वितीय पक्षका ग्रहण किया है, अस्तु । विशिष्टोपक्रमादेवमतश्चेत्सोऽपि तत्त्वतः । समाधिरेव सम्भाव्यश्चारित्रात्मेति नो मतम् ॥ ५२ ॥ frक्षण प्रकार के उपक्रमसे ही कमौके का उपयोग करना यदि आपको इष्ट है, तब सो वास्तविकता विचारा जाये तो वह विशेष उपक्रम करना भी समाधिरूप ही सम्भव है, जो कि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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