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तत्त्वार्य चिन्तामणिः
ऐसी समाधि तो हम-त्याद्वादियों के मतमें चारित्र स्वरूप मानी गयी है । पाल देकर मामको पकाने या सुखाने के समान भविष्यमें उदय आनेवाले काँको पुरुषार्थी तपस्वी उसी जन्ममें फल भोग कर या विना फलके निर्जीण कर देता है।
यसादुपक्रमाविशेषात् अनिका कोष गोगो सोगिनोऽमिमतः स समाधिरेव तखतः सम्भाव्यते, समाधावुत्थापितधर्मजनितायामृद्धौ नानाशरीरादिनिर्माणद्वारेण संचितकर्मफलानुभवस्यष्टत्वात् । समाधिश्वारित्रात्मक एवेति चारित्रान्मुक्तिसिद्ध सिद्ध स्याहादिना मतं सम्यक्त्वज्ञानानंतरीयकत्वाचारित्रस्य ।
जिस कारणसे फि विशिष्ट उपक्रम द्वारा योगी महाराजके काँका फलोपभोग स्वीकार किया है, वह विशिष्ट उपक्रम तो समाधिरूप ही वस्तुतः सम्भव है । चित्तकी एकाग्रतारूप समाधिमें उत्पन्न हुए विलक्षण पुण्यसे बनायी गयी ऋद्धियोंके होनेपर अनेक शरीर, केवकिप्तमुद्धात यादिकी रचनाके द्वारा एहिले एकत्रित किये हुए कोंके फलका अनुभव करना इष्ट है और वह समाधि पारित्र स्वरूप ही है । केवली महाराज भी अनेक पुण्यकमाके उदय होनेपर विना इच्छाके मुखका मनुभव करते हैं। वे सुख अनंत सुखमें ही गर्मित होजाते हैं अर्थात् विष्णुकुमार मुनीश्वरने शरीर बनाया था। उस विक्रिया करने में उनके पूर्व सञ्चित पुण्यकर्मका भोग अवश्य हुआ। वादिराज मानतुङ्ग आदि महर्षियोंने अपने पुण्यका घाटा सहकर ही बिना इच्छाके लौकिक सुख प्राप्त किया था। इसी प्रकार मुनि महाराजोंके पुण्य पापके उदयानुसार सुख, दुःख होते रहते हैं । तुि समाधिपरिणामोंसे उनका ऐच्छिक वेदन नहीं होने पाता है। आधारक ऋद्धिके लेने में भी पुण्यका व्यव होता है। इस प्रकार चारित्रसे कर्मफल मोगकर . काँकी मोक्ष होना सिद्ध होता है। हां। जो पौराणिक ऐसा मानते हैं कि राजापनको भोगानेवाले कर्मोंसे मुनियों के राजा तथा अनेक रानिर्या “चाकर आदिके शरीर बनजाते हैं । वे राजा होकर रानियोंसे तपमें बैठे हुए ही भोग करते हैं। यह - सिद्धांत सो जैनोंके इन नहीं है । राज्य, चक्रवर्तीपन, इन्द्रव आदिको बनानेवाले कर्म तद्भव मोक्षगामी जीवके बिना फल दिये हुए ही झडजाते हैं। काँका विपाक द्रव्य, क्षेत्र, काल, माव मिकनेपर होता है। बिना सामग्रीके धूलमें पड़ी हुयी आगके समान अनेक कर्म तो फल दिये बिना ही नष्ट हो जाते हैं । अतः स्याद्वादियोंका मंतव्य सिद्ध हो गया । क्योंकि चारित्र गुणका सम्यक्ष और ज्ञानसे अविनामावीपना है । भावार्थ-जहां सभ्यक्चारित्र होगा उसके प्रथम सम्यग्दर्शन और ज्ञान अवश्य हो चुके होगे । अथवा सम्यग्दर्शन, और सम्मानके अनंसर चारित्र हुमा करता है तथा च रलायसे ही मुक्तिकी सिद्धि हुयी।
सम्यग्ज्ञानं विशिष्टं चेत्समाधिः सा विशिष्टता । तस्य कर्मफलध्वंसशक्तिनामांतरं ननु ॥ ५३ ॥