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तत्त्वाचिन्तामणिः
आत्मा में भूलसे नष्ट हो जाते हैं ( साध्य ) पूर्णरूपसे क्षयका कारण विद्यमान होनेसे ( हेत ) इस अनुमानमें प्रतिमन्धक कर्म-रूपी धर्मी ( पक्ष ) की असिद्धि नहीं हुयी ।
का पुनरेतत्क्षयहेतुः समग्रो यद्भापादेतसिद्धिरिति चेत् ।
फिर यहां प्रभ है कि मोहनीय आदि मौके पूर्णरूपसे क्षयका कारण कौन है ! जिसके विद्यमान होनेस जैनोंका हेतु सिद्ध कहा जाये बताओ, यदि ऐसा कहोगे तो आचार्य उत्तर देते हैं कि
तेषां प्रक्षयहेतु च पूर्णे संवरनिर्जरे । ते तपोतिशयात्साधोः कस्यचिद्भवतो ध्रुवम् ॥ ४२ ॥
उन मोहनीय आदि कोके वर्तमान और भविष्यके भी सम्बन्धको रोकते हुए बढिया क्षय करनेके कारण वे पूर्ण संवर और निर्जरा किसी किसी निकटसिद्ध साधुके उत्कृष्ट तपके माहात्म्यसे निभव कर पैदा होजाते हैं।
तपो झनागताघोघप्रवर्तननिरोधनम्। तज्जन्महेतुसंघातप्रतिपक्षयतो यथा ॥ ४३ ॥ भविष्यत्कालकूटादिविकारौघनिरोधनम् । मंत्रध्यानविधानादि स्फुटं लोके प्रतीयते ॥ १४ ॥ जिस तपके द्वारा संवर और निर्जर। दोनों हो जाते हैं, उस तपके उत्पन्न होने के कारण सो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, और चारित्र है । बहिरंग, दीक्षा, तपस्या, कायक्वेश आदि मी हैं । वह तप ही भविष्यमे आनेवाले पापोंके समुदायकी प्रवृतिको रोकता रहता है तथा वर्चमानकालेम भी उस पापका सम्बन्ध नहीं होने देता है। कर्मोके उत्पन्न होनेका कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगोंका समुदाय है। उसको सम्यग्दर्शन आदि सामग्रीसे नाश करता हुआ म. किसी साधुके उत्पन्न होजाता है । जैसे कि यह बात लोकमें स्पष्टरूपसे प्रतीत होरही है कि कादे हुए या जहर खानेवाले मनुष्यके शरीरमें विषका प्रभाव मन्त्रसे और ध्यानकी विधि आदिने वर्तमान में भी वष्ट कर दिया जाता है और भविष्यकालमें भी उस तीक्ष्ण विष या पावले कुवेके काटने, और पागल श्रृगालके काटनेके विकारोंके समुदाय रोक दिये जाते हैं । इसी प्रकार सपके घारा वर्तमान और भविष्यके लिये कर्मबन्ध नष्ट कर दिये जाते हैं।
नृणामप्यघसम्बन्धो रागद्वेषादिहेतुकः दुःखादिफलहेतुत्वादतिभुक्तिविषादिवत् ॥ ४५ ॥