________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दर्तमान संहारी जीवोंके भी नाग, द्वेष,- अज्ञान, प्रमाद, आदि कारणोंसे पापोका सम्बन्ध अवश्य है (प्रतिज्ञा ) क्योंकि वह दुःख, अज्ञान, उत्साहका न होना, परतन्त्र होना, आदि फलोका कारण है ( हेतु ) जैसे कि मूखसे अत्यधिक खानेपर या विष, कच्चा पारा आदि मक्षण करनेसे उस पुद्गलके सम्बन्ध द्वारा आत्मामें नाना क्लेश उत्पन्न हो जाते हैं। (अन्वयदृष्टान्त) उसी प्रकार संसारीमनुष्यों के विचित्र प्रकारके आधि, व्याधि, उपाधिरूप अनेक दुःख देखे जाते हैं । इससे प्रतीत होता है कि आत्माके विभावभावका कारण विजातीय पुदल पापद्रव्यका सम्बन्ध हो रहा है।
तद्विरोधि विरागादिरूपं तप इहोच्यते ।
तदसिद्धावतजन्मकारणप्रतिपक्षता ॥ ४६ ॥
जिन रागद्वेष, अज्ञान आदि विभाओंसे कमाका बन्ध होता है, उन रागादिकोसे विरोध करनेवाले वैराग्य, आत्मज्ञान, भेदविज्ञान, स्वाध्याय, कायकेश, धर्मध्यान आदि स्वरूप यहां प्रकरणमें तप कहा जाता है । क्योंकि धर्मध्यान, वैराग्य आदि तपके सिद्ध न होनेपर उन पापोंकी उत्पत्ति के कारण हो रहे अविरति, कषाय आदिका विरोध करना नहीं बनता है । इसकारण वीतराग विज्ञान आदि ही ज्ञानावरण आधि पौलिककौके और रागद्वेष भादि भावकों के विरोधी सिद्ध हो जाते हैं।
तदा दुःखफलं कर्म संचितं प्रतिहन्यते कायक्लेशादिरूपेण तपसा तत्सजातिना ॥ ४७ ॥ खाध्यायादिस्वभावेन परप्रशममूर्तिना। बद्धं सातादिकृत्कर्म शक्रादिसुखजातिना ॥ ४८ ॥
जिस समय मुनिमहाराजके उत्कृष्ट तप हो जाता है उस समय दुःख, रोग, संक्लेश है फल जिनके ऐसे पूर्व जन्ममें इफ किये गये कर्म सो प्रतिपक्ष हो रहे कायक्लेश, प्रायश्चित्त उपवास. प्युसर्ग आदि तोके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं। और इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती आदिके सुखोको प्राप्त करानेवाले या उसी जातिके दूसरे नीरोगता, सत्कुलीनता, यशस्विता, राजलोकमान्यता, जयशालिनी विद्वता आदि लौकिक सुखोको देनेवाले सातावेदनीय, उच्चगोत्र, यशस्कीति, सुभग, आदि कौकिक सुखसाताको करनेवाले पुण्यकर्मको आत्मामें बंधे हुए हैं। उन शुभकाँका विनाश तो परम उत्कृष्ट शान्तिकी मूर्ति स्वरूप स्वाध्याय, शुक्लध्यान, आदि आत्माके स्वाभाविक परिणामरूप तपसे हो जाता है।