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________________ (૨ तत्त्वार्थचिन्तामणिः उस समय सेवन नहीं किया है। हमने यहां सम्पूर्णरूप से दोषोंके नाश करनेवाले कारणोंसे सर्वथा नष्ट हो चुके तमारा आदि दोषोंको ही दृष्टान्त किया है। कुछ देरके लिये दब गये अन्य स्तोष आदिको दृष्टान्त नहीं बनाया है । इस कारण कुछ दिनके लिये उपशमको प्राप्त हुये इस समारा दोषसे हमारे हेतुका व्यभिचार नहीं है। क्योंकि वहां दबे हुए कामल आदि नेत्रदोषों में “ सम्पूर्ण रूपसे क्षय करनेका कारण विद्यमान है " वह हेतु रहता नहीं है । फिर व्यभिचारदोष कैसा ! ! किं पुनः केवलस्य प्रतिबन्धकं यस्यात्यन्तपरिक्षयः कचित्साध्यत इति नाशेप्तव्यम् । यहां किसीका उपहास करते हुए आक्षेप है कि मेत्रके दृष्टान्त से दोषोंका सम्पूर्ण रूपसे क्षय हो जाना मान भी लिया जाय, फिर भी आप यह मा प्रतिवन्म करनेवाला दोष कौन है ? जिसका कि अनन्त कालतक के लिये पूर्ण रूपसे नष्ट होजाना किसी एक आत्मामें सिद्ध किया जा रहा है । अन्धकार कहते हैं कि इस प्रकार आक्षेप नहीं करना चाहिये । कारण कि----- । मोहो ज्ञानeगावृत्यन्तरायाः प्रतिबन्धकाः । केवलस्य हि वक्ष्यन्ते तद्भावे तदनुद्भवात् ॥ ४१ ॥ मोहनीय, तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, ये पौङ्गलिक कर्म केवकज्ञानके निश्वय फरके प्रतिबन्धक है । मूलसूत्रकार इस बातको आगे दशमें अध्याय में कहेंगे उन कमौके होने पर व केवलज्ञान नहीं पैदा होता है । यहां अन्वयव्याप्ति है । कि— यद्भावे नियमेन यस्यानुद्भवस्ततस्य प्रतिबन्धकं यथा तिमिरं नेत्रविज्ञानस्य, मोहादिभावोऽस्मदादेश्चक्षुर्ज्ञानानुद्भवश्च केवलस्थेति मोहादयस्तत्प्रतिबन्धकाः प्रवक्ष्यन्ते, ततो न धर्मिणोऽसिद्धिः । 1 जिसके विद्यमान रहनेपर जो नियमसे पैदा नहीं होता है, वह उसका प्रतिबन्धक माना जाता है । जैसे कि नेत्रोंके द्वारा ठीक ठीक विज्ञान होने का प्रतिबन्ध करनेवाले समारा, काम आदि दोष हैं। हम आदि लोगोंके मोहनीय कर्म और ज्ञानावरण आदि कर्म विद्यमान हैं। जैसे तिमिरादि - दोष के विद्यमान होनेपर पूरा चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं पैदा होता है। इसी प्रकार चारित्रमोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के होनेपर केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो पाती है। इस हेतुसे मोहादिक कर्म उस केवलज्ञानके आवरण करनेवाले सिद्ध होते हैं । केवलज्ञानके बिगाड़ने वाले कमौका विरूपण अन्तिम अध्याय में करेंगे, इस कारण ज्ञानके प्रतिबन्धक कर्म (पक्ष) किसी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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