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ताचिन्तामणिः
क्षय होजानेसे बिगड़े हुए वात या पित्तके प्रकोप से उत्पन्न हुए पीडा, अर, लेष्म, आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रके पूर्णरीत्या क्षम हो जानेपर संसार नष्ट होता हुआ देखा जाता है । इस कारण वे तीन संसारके कारण हैं । यह पांच अवयववाला अनुमान है । पहिले यह देखना है कि इस अनुमानमें दिया गया मिथ्यादर्शन आदिके क्षय होनेपर संसारका क्षय होते जानारूप हेतु हम जैन सिद्धान्ती-वादीको असिद्ध नहीं है । स्याद्वादसिद्धान्त के अनुसार मिध्यादर्शनका चौथे गुणस्थानवर्ती असंयत सम्यग्दृष्टिजीवके उपशम, क्षय, या क्षयोपश्चमस्वरूप नाश हो जाने पर अनन्तकाल तक होनेवाले संसारका क्षय हो जाना सिद्ध हो जाता है। जिसे एक बार सम्यग्दर्शन हो गया है, वह परिवर्तन काळतक संसार में ठहरेगा । पश्चात् अवश्य मुक्तिको प्राप्त करेगा। अतः उसकी केवल संख्यात भवको धारण करने रूपसे ही संसारमें स्थिति है । अर्थात् अनन्तानन्त भवकी अपेक्षा संख्यात, असंख्यात, या छोटा अनन्तके केवळ अंगुलिपर गिनने के समान संख्यात ही समझने चाहिये | अधिकसूक्ष्म वाठोंको नहीं समझनेवाले प्रतिवादिओंके सन्मुख मोटी मोटी बातें कह दी जाती है । अन्यथा एक झगडा निर्णीत नहीं हुआ, तबतक दूसरा तीसरा और खडा हो जाय। कुतर्किओं को समझाना नितान्त कठिन है। अथवा क्षायिक सम्पदृष्टि जीव तो अधिकसे अधिक बार भने अवश्य संसारका नाश कर देता है । अतः संसारका काल अत्यन्त न्यून हो जानेसे देतु पक्षमें रह जाता है। असिद्ध स्वाभास नहीं है।
तत एव मिथ्याज्ञानस्यापक्षये सम्यग्ज्ञानिनः संसारस्य श्रीयमाणत्वं सिद्धम् ।
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उस ही कारण से चौबे गुणस्थानमें मिथ्याज्ञानके विघट जानेपर सम्यम्ज्ञानवाले जीवके संसारका क्षयकी तरफ उन्मुख होनापन सिद्ध है । सम्बग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ होते हैं । अतः सम्यग्ज्ञानी जीव भी जिनदृष्ट संख्यात जन्मोंसे अधिक संसारमें नहीं ठहरता है। अपूर्वकरण अवस्थाके मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिदशा से ही कमोंकी असंख्यगुणी निर्जरा होना प्रारंम्भ हो जाता है । सम्यक् चारित्रवतस्तु मिथ्याचारित्रस्यापक्षये तद्भवमा संसार सिद्धेर्मोक्षसम्प्राप्तेः सिद्धमेव संसारस्य श्रीयमाणत्वम् ।
तथा सम्यकूचारित्र वाले जीवके तो मिथ्याचारित्र के सर्वथा क्षय हो जानेपर केवल उसी जन्मका संसार शेष रहगया सिद्ध है । क्षायिक चारित्रके हो जानेपर उसी जन्म में मोक्षकी समीचीन प्राप्ति होजाती है । अतः संसारका क्षय हो जाना यहाँपर अच्छी तरहसे घट गया। इस कारण स्वाद्वादियों हेतु सिद्ध है। तीन गुणोंसे सीन दोष नष्ट हो जाते हैं और संसारका क्षय होना क्रमसे चालू होकर पूर्णताको प्राप्त हो जाता है ।
न चैतदागममात्रगम्यमेव यवोऽयं हेतुरागमाश्रयः स्यात् तद्ग्राहकानुमानसद्भावात् । तथा हि-