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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः यह बात केवल जैनोंके शास्त्रों में श्रद्धा रखनेवाले यज्ञाप्रधानियों को ही समझने योग्य है । परीक्षक लोग ऐसे संख्यात जन्ममें मोक्ष जानेकी पाधपर विश्वास नहीं करते हैं, यह नहीं समझ बैठना, जिससे कि हमारा हेतु कोरे आगमकी बातें कहनेवाला होनेसे आगमाश्रम दोषसे दूषित हो जावे | युक्तियोंसे सम्वाद होते होते यदि अपने अपने माने हुए आगमोंकी बात कह दी जब और यदि उसको से पुष्ट न किया जावे तो आगमाश्रय दोष हो जाता है। किंतु हमारे उस हेतुका अनुग्रह करनेवाला दूसरा अनुमान प्रमाण विद्यमान है । अतः आगमाश्नम दोष नहीं है । उसी अनुमानको प्रसिद्ध कर दिखलाते हैं । दत्तावधान होकर सुनिये । ५५० मिथ्यादर्शनाद्यपक्षये श्रीयमाणः संसारः साक्षात्परम्परया वा दुःखफलत्वाद्विषमविषभपातिभोजनादिवद, यथैव हि साक्षाद्दः खफलं विषमविषभक्षणं, परम्परयातिभोजनादि, तन्मिथ्याभिनिवेशाद्यपक्षये तवज्ञानवतः क्षीयते ततो निवृत्तेः तथा संसारोऽपि ही स्थानपरिग्रहस्य दुःखफलस्य संसारत्वव्यवस्थापनत्वात् न च किञ्चित्साक्षात्परं परया का विफलं मिग्लाघ्नयदेवदीयाएं कटं येन हेतोर्व्यमिचारः स्यात् । संसार ( पक्ष ) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इनके उपशम, क्षयोपशम और क्षयरूप नाश होनेपर क्षयको प्राप्त हो रहा है ( साध्य ) क्योंकि चतुर्गतियों में जन्म, मरण करना रूप संसार अव्यवहित उत्तरकालमें या परंपरासे दुःखरूप फलको उत्पन्न करने का बीज है । ( हेतु ) जैसे कि अत्यंत मगर हालाहलका भक्षण करलेना या प्राणापहारी वस्त्रोंसे कट, मिद, जाना तथा अधिक मोजन कर लेना अथवा अति परिश्रम करना आदिका फळ दुःख भोगना है । ( दृष्टांत ) अर्थात् जैसे ही बढे विषके भक्षणसे अतिशीघ्र ही घबडाना, विकल हो जाना, पीडा होना, और अंतमें बुरी तरहसे मौत हो जाना, ये दुःखरूपी फल प्राप्त होते हैं । या बाण, गोली और तलवारके लगनेसे अव्यवहित कालमें मृत्युपर्यंत अनेक कष्टरूप फल शीघ्र ही मोगने पढते हैं । तथा मुखसे कहीं अधिक भोजन करनेपर या शक्तिसे अधिक परिश्रम आदि करनेपर कुछ देर पीछे ज्वर, शरीरपीडा, आदि रोगोंका स्थान बनकर कुछ दिन बादतक परम्परासे जीवको दुःस्वरूप फल भोगने पडते हैं, यानी उस समय दुःख नहीं मी प्रतीत होय किंतु कालांतर में वे सीन दुःखके कारण हैं। किंतु इन दुःख देनेवाले हालाहल, अतिभोजन आदिका समीचीन ज्ञान, श्रद्धान हो जाने से इनका कोई माचरण नहीं करता है अर्थात् विषमक्षण आदि दुःख देनेवाली क्रियाओंका क्षय हो जाता है । दृष्टांत में हेतु रह गया; साध्य भी रह गया । जो कोई आत्मघाती क्रोधके वश विषको खा लेता है या कोई कोलुप, प्राणी मोदक आदिको अधिक स्वा लेता है, उसके मिध्याश्रद्धा और मिथ्याज्ञान है । अतः विष खानेका या अधिक खानेका उसके क्षीयमा पना मी नहीं है, वैसे ही उन मिध्यादर्शन, कुशान और कुचारित्रकी हानि होते होते ज्ञा
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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