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________________ याचिन्तामणिः , जीवके संसार क्षयको प्राप्त हो जाता है। उन विषमक्षण आदि दोषोंसे जैसे तत्त्वज्ञानीकी निवृत्ति हो जाती है, वैसे ही उसके संसारका भी कमसे क्षय होना सिद्ध हो जाता है । अनेक प्रकारके दुःख भोगना है फल जिसका, ऐसे निकृष्टवान शरीरका ग्रहण कर लेना ही संसार है। भावार्थविद्वानोंने सम्पूर्ण दुःखोंके मूलभूत शरीरग्रहणको ही संसार हो जानेकी व्यवस्था की है। अन्यत्रहित रूपसे अथवा परम्परासे दुःवरूप फलको उत्पन्न करनेवाला ऐसा कोई भी कारण नहीं देखा गया है, जो कि मिथ्यावर्शन आदिके शनैः क्षय होनेपर क्रम क्रमसे क्षयको प्राप्त होमवाला न होवे, जिससे कि हमारे दुःखफलस्व हेतुका व्यभिचार हो जाये । अर्थात् हेतु व्यभिचार दोषसे रहित है । ज्ञानी जीव जिसको दुःख फल देनेवाला समझ लेता है, उसके कारणोंका नाश करता हुआ उसको भी शीघ्र नष्ट कर देता है। ___ गण्डपाटनादिक दृष्टमिति चेत् न, तस्य बुदिपूर्व चिकित्सेत्यनुमन्यमानस्य सुखफलत्वेनाभिम्तमा दुःखफारसिद्धः, नितीनागसिगर्वस्य दुःखफलस्यापि पूर्वोपासमिध्यादर्शनादिकृतकर्मफकत्वेन तस्य मिथ्यादर्शनाधनपक्षयेऽक्षीयमाणस्वसिद्धेः। यदि कोई यो आक्षेप करे कि दूषित फोडे में चीरा लगवाना, पीहा देनेवाले छातको निकवाना, गल जानेपर अंगुलीका कटवाना भादिक दुःख फलवाले कारण देखे गये है। किंतु वहां साध्य नहीं है अर्थात् ज्ञानी, श्रद्धानी जीव भी वावमें चीरा लगवाना आदि कियाओंका आचरण करते हैं। यहां विषमक्षण आदि क्रियाके क्षय होजानेके समान क्षय होजाना साध्य नहीं रहा। अतः जैनोंका हेतु व्यभिचारी हुआ। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना। क्योंकि पाव चीरने पादिमे दुःखफसल नहीं है। किंतु उसका फल भविष्यमें सुख होना है। अतः हिताहितको परखने वालेकी बुद्धिपूर्वक चिकित्सा है ऐसा माननेवाले जीवके फोदा चिरवाने आदिमें सुखरूप की पाति होना अभीष्ट है। उसमें दुःखरूप फल देनापन असिद्ध है। हेतुफे न रहनेपर साध्यके न रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं होता है । हां 1 छोटे बच्चे पशु आदि जीवोंके बुद्धिपूर्वक चिकित्साका विचार न होनेपर फोडा खोसडालने, स्वाज खुजाने आदिमें दुःखरूपी फलको देनेवामपन हेतु रहजाता है। वह पहिले जन्ममें ग्रहण किये मिथ्यास्त्र आदिसे किये गये काँका फल है। अतः उस दुःखरूप फलको मिथ्यादर्शन आदिके नहीं झर होजानेपर क्रमसे नहीं क्षीण होनापन सिद्ध है । मावार्थबचे आदिकोंके मिथ्यादर्शन आदिको हेतु मानकर दुःख भोगना फल सिद्ध है। यहां साध्य के न रहनेपर हेतुका रहना नहीं पनता है । अतः हेतुमे कोई दोष नहीं है । मिथ्याश्रद्धान और मिथ्याज्ञानके क्षय होनेपर जहां दुःख फलको पैदा करनेवालेपनका ज्ञान है, वह तत्त्वज्ञानीके अवश्य नष्ट होजावेगा। पालक या पशुको फोडे चीरने आदिमें दुःख फलस्वका ज्ञान तो है। किंतु उनके मिथ्याश्रद्धा, ज्ञानका क्षय नहीं हुआ है । अतः मिथ्यावर्शनके क्षय न होनेसे उनको दुःख देनेवाले कारणका क्षम नहीं होता है । मिथ्या मध्यवसायके क्षय होनेपर तत्त्वज्ञानीको जिस क्रिया दुःख
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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