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________________ ५५३ तस्वार्थंचिन्तामणिः फलस्व दीखता है, वह कारण अवश्य क्षयको प्राप्त होजाता है, जैसे कि विषभक्षण, अतिभोजन, आदि क्रियाएं विचारशील पुरुषोंके क्षपको प्राप्त होजाती है। का क्लेशादिरूपेण तपसा व्यभिचार इत्यपि न मन्तव्यं तपसः प्रशमसुखफलत्वेन दुःखफलत्वासिद्धेः तदा संवेद्यमानदुःखस्य पूर्वोपार्जितकर्मफलत्वात् तपः फलत्वासिद्धेः । पुनः कोई दोष उठावे कि आप जैनोके दुःखफलत्व हेतुका कायक्लेश, केशलंचन, आतपन - योग, उपवास आदि दुःखफलको उत्पन्न करनेवाले इन तपःस्वरूप कारणसे व्यभिचार होगा। क्योंकि केशलुंचन आदि क्रियाओं में दुःखरूपी फलका जनकपना ( हेतु ) है। किन्तु मिथ्यादर्शन यादिके अपक्षय होनेपर श्रीयमाणपना ( साध्य ) नहीं है । प्रत्युत मिध्यादर्शन आदिके भ्यून होनेपर विचार शादी मुनिमहाराज कायक्लेश आदि क्रियाओंको बढाते जाते हैं। अन्यकार कहते है कि यह भी नहीं मानना चाहिये। क्योंकि कृपण होरहे आमाके गुणों का विकास करनेके लिये कायक्लेश, उपवास आदि किये जाते हैं । इन कियाओंके करनेसे साधुओंको शान्तिसुखरूपी फल प्राप्त होता है । अतः दुःख फलपना असिद्ध है। इन क्रियाओं का फल दुःख भोगना नहीं है । अन्यभा चलाकर स्वयं प्रेरणा से ये क्रियाएं क्यों की जाती ! अर्थात् जैसे कि सेवा धर्म का पालन करनेवाले परोपकारी पुरुषको स्वयंकेश उठाते हुए दूसरोंके दुःख, पीडा, आदिको मेटनेसे विलक्षण अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है । मुनिमहाराजकी वैयावृत्य करनेसे मक्त श्रावक आनन्दित होजाता है। वैसे ही स्वास्मकर्तव्य में दुःख प्रतीत नहीं होता है।आजीविका या पारितोषिककी अभिलावासे सेवावृद्धि करना शूद्रकर्म है। किन्तु परोपकारके लिये सेवाधर्म पालना आत्मीय धर्म है। परोपकारी पुरुषको या आत्मोपकारी तपस्वीको आत्मीयकर्तव्य के अनुसार शरीरको क्रेश करनेवाली क्रियाओंमें दुःखका अनुभव नहीं होता है । दुःखको दुःख समझकर समता भावोंसे सह सेना जघन्य मार्ग है और दुःखको सुख समझकर सहना मध्यममार्ग है। किंतु उस दुःखका ज्ञान (वेदन ) ही न होना उत्तम मार्ग है । सुकुमाल मुनीश्वरने श्रृंगालीके द्वारा मक्षण किये जानेपर मी उस दुःखका वेदन नहीं किया था | अन्यथा उनको उपशम श्रेणी नहीं हो सकती थी । युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन इन तीन पाण्डव मुनीश्वरोंने घोर उपसर्ग सहते हुए मी उषर लक्ष्य नहीं दिया था, तभी तो क्षपक श्रेणीपर भारूड होकर केवलज्ञान प्राप्त कर किया था । दुःख, पीडा, आदिकी ओर उपयोग कगानेसे और उसमें स्मृतिमन्वाहार करनेसे ही दुःखका वेदन होता है। गर्मिणी श्रीको पुत्रके उत्पन्न करने, पोषण और मलमूत्रके घोने आदिमें मोढा लेश नहीं है किंतु महान क्लेश है। उसको क्षुषा, पिपासा, शीत, उष्ण आदिकी वेदनायें सहनी पडती है। बच्चे बीमार हो जानेपर मूंखसे कम खाना, उपवास करना, रसोंका त्यागकरना आदि मी पालन करने पडते हैं । फिर भी गर्मिणीको उन कवासे आभिमानिक सुखकी कल्पना करके अत्यधिक सुख प्राप्त होता है । अनेक वन्ध्या लिये उक्त दुःखोंको सहनेके लिये तरसती रहती हैं। व्यापारी, किसान आदिको मी I अनेक दुःख
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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