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________________ सत्त्वाप चिन्तामणिः सहने पड़ते हैं। वे घन, धान्यके उपार्जनका लक्ष्य कर मध्यमें आये दुःखोंको अज्ञात के समान भोग लेते हैं। इससे सिद्ध है कि दुःख होनेपर भी उत्तर उत्तम साध्यकी ओर लक्ष्य होने से दुःस्वका बेदन नहीं होता है तथा झूठे सङ्कल्प विकल्प करनेवाले, ठलुआ, चिन्ताशील, मनुष्योंको दुःख न होनेपर भी अनेक सम्भावित दुःख सताते रहते हैं। अतः दुःखवेदन करनेका इट अमिष्टकल्पनासे पनिष्ठ सम्बन्ध है । दुःख होना और दुःखका अनुभव करना दो आते हैं। उन मुनि महाराजोंको कायक्लेश, परीषह आदिसे होनेवाले दुःखोंसे उलटा अनुपम शान्ति मुख प्राप्त होता है । इसलिये वहां दुःखं फलख हेतुके न रहनेसे व्यभिचार दोष नहीं है । यदि किसी समय छठे गुणस्थानवर्ती मुनि महाराजके व्यथाजन्य दुःखवेदन ( अनुभव ) भी होजावे तो वह उस समय भोगा जारहा दुःख पूर्वजन्ममें इकट्ठे किये गये दुष्कर्मों का फल है । उस दुःखको कायक्लेश, उपवास, आदिरूप तपस्याका पाना असिद्ध है । अतः मा पूर्वोत्त दुःनालय हेतु निदोष है । मावार्थ-कायक्लेश, मादि तपके कार्यमें दुःखफलस्य नहीं रहता है, जिससे कि तपःक्रियाको ही क्षय कर देने का तत्त्वज्ञानीके प्रसंग आसा । जैसे विषमक्षण नहीं किया जाता है, वैसे तपः भी न किया जाता । मामिमानिक सुखको करनेवाले अनेक दुःखोंको भी जन सुख कह देते हैं तो फिर आस्मशुद्धि या मोक्षमार्गमें संलग्न करनेवाले तपश्चरणको तो दुःखहेतु कैसे भी नहीं कहा जासकता है। मिथ्यादर्शनाधपक्षये शीयमाणश्च न स्यात् , इति संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वमपि न साधनस्य शंकनीयं, सम्बग्दर्शनोत्पत्तावसंयतसम्यग्दृष्टेमिथ्यादर्शनस्यापक्षये मिथ्याज्ञानानुत्पत्तेस्तत्पूर्वकमिथ्याचारित्राभावाचनिबन्धनसंसारस्यापक्षयप्रसिद्धः, अन्यथा मिथ्यादर्शनादित्रयापक्षयेपि तदपक्षयाघटनात् । __ साक्षात् अथश परम्परासे दुःखफलको देनेवालापना हेतु रहजावे और मिथ्यादर्शन आदिके यथाक्रमसे शय होनेपर क्षयको प्राप्त होरहा संसार न होवे अर्थात् हेतु रहे और साध्य न रहपावे, इस प्रकार हेतुके अप्रयोजक होजानेसे हेतुकी विपक्षसे व्यावृत्ति होना संदिग्ध है । अतः जैनोंका हेतु संदिग्धन्यभिचारी है, यह भी शंका नहीं करनी चाहिये । क्योंकि सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होजानेपर चतुर्थ गुणस्थानवाले असंयत सम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्यादर्शनका हास होजाते सन्ते मिथ्याज्ञानकी उत्पति नहीं होपाती है । अतः उन मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको पूर्ववर्ती कारण मानकर होनेवाले मिथ्याचारित्रका भी अभाव होगया है । इस कारण उन तीन कारणोंसे उत्पन्न हुए संसारका भी हास होना प्रसिद्ध है। जब कारण ही न रहा तो कार्य कहांस हो सकेगा। अमिके दूर होजानेपर उष्णता भी नष्ट होजाती है। यदि ऐसा न मानकर दूसरे प्रकारोंसे माना जाता तो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन तीनकी हानि होते हुए भी उस संसारका क्रम हास होता नहीं बन सकता था। अतः हमारे हेतु अनुकूल तर्क है। जैसे कि धूम होवे और वहिन हो, ऐसा मापादन करनेपर कार्यकारणभावके मंग हो जानेका हर है, वैसे ही यहां 70
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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