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________________ ५५४ तत्त्वार्थेचिन्तामणिः मिथ्यादर्शन आदि तीनके साथ संसारका कार्यकारणभाव होना ही इतकी व्योजकता है। धीरे धीरे नाथ होते होते पूरे नाशके लिये अभिमुख हो जाना अपक्षयका अर्थ है । न च सम्यग्दृष्टे र्मिथ्याचारित्राभावात्संयतत्वमेव स्यान्न पुनः कदाचिद संयतत्वमित्यारेका युक्ता, चारित्रमोहोदये सति सम्यक् चास्त्रिस्यानुपपत्तेरसंयतत्वोपपत्तेः । कात्स्तो देशतो वा न संयमो नापि मिथ्यासंयम इति व्याहतमपि न भवति, मिथ्यागमपूर्वकस्य संयमस्य पञ्चाग्निसाधनादे मिथ्यासंयमत्वात् सम्यगागमपूर्वकस्य सम्यक्संयमत्वात् । ततोऽन्यस्य मिथ्यात्वोदयासच्चेऽपि प्रवर्तमानस्य हिंसादेरसंयमत्वात् । 1 1 यदि कोई यों आशक्का उठावे कि जैनोंके वर्तमान कथनानुसार सम्यग्दृष्टि जीवके चौथे गुणस्थानमें मिथ्याचारित्रके न रहने से संयमीपना भी हो जावे । फिर कभी भी चौथे गुणस्थानवालेको असंयतपना नहीं होना चाहिये । जब मिथ्याचारित्र न रहा तो महात्रतका धारण, समितियों का पालन, कपायका निग्रह, मन, वचन, कायकी उच्छृंखल प्रवृत्तियोंका त्याग, और इंद्रियोंका जयरूप संयमभाव हो जाना चाहिये | आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसीका शंका करना युक्त नहीं है। क्योंकि चौथे, पांचमे गुणस्थान में चारित्रगुण ( संयम ) का मोहन करनेवाले अमत्याख्या. नावरण और प्रत्याख्यानावरणका उदय हो रहा है। ऐसा होनेपर सम्यक्चारित्र गुण नहीं बन सकता है | अतः चौथे में इंद्रिय संयम और प्राण-संयमरूप विरति न होनेसे असंवतपना मन जाना सिद्ध है और पांच सांकल्पिक सबका त्याग हो जानेसे तथा स्थावश्वका त्याग न होनेसे "देशसंतपना है । जबतक प्रत्याख्यानावरणका ग्यारहवीं प्रतिमा भी मन्दतम उदय है, तबतक संयममात्र नहीं है। अंतः चौथे गुणस्थान में छट्ठे के समान पूर्णरूपसे संयम नहीं है और पांचवेके समान एकदेश से भी संयम नहीं है तथा पहिले गुणस्थान के समान मिथ्यासंयम भी नहीं है । इस प्रकार इन तीनोंका निषेध करनेसे व्याघात दोष भी नहीं होता है । भावार्थ- जैसे कोई कहे कि वह विशेष व्यक्ति पुरुष भी नहीं है और स्त्री भी नहीं है। यहां परिशेषसे वह जीव तीसरा नपुंसकवेदी माना जाता है । ऐसे ही संयम, देशसंयम और मिथ्यासंयम ये तीन ही अवस्थाएं होती तो दोके निषेध करनेपर तीसरेका विधान अवश्य हो जाता । युगपत् तीनोंका निषेध कर ही नहीं सकते थे। जैसे यह अमुक पदार्थ जड भी नहीं है । चेतन भी नहीं है। इस प्रकार दोनोंका निषेध करना अशक्य है। किंतु जैसे यह विवक्षित संसारी जीव देव नहीं, नारकी नहीं, सिर्यञ्च नहीं है । इन तीन निषेध करनेपर मो चौथा भेद मनुष्य रूप है, वैसे ही इन तीनों संयमोंसे रहित चौथी असंयम है । जो कि चौथे गुणस्थान में है अथवा जैसे मिध्यादर्शनमा पहिले गुणस्थान में है, सम्यक्त्र चोथे में है, मिला हुआ सम्यग्मिथ्यात्व मात्र तीसरे में है। किंतु इन तीनोंसे अतिरिक्त अनुभव ror मिथ्यात्व अवस्था दूसरे सासादन गुणस्थानमें है । वैसे ही पूर्णसंयम, देशसंयम और मियासंयमसे भिन्न मानी गयी चौथी असं रूप अवस्था चौथे गुणस्थान में है। झूठे खोटे शास्त्रोंके I
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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