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________________ ५.८ सत्वा चिन्तामणिः यावेव विपर्ययासंयमौ वितयार्थश्रद्धानशक्तियुतौ मौलो तावेव भवसंतानप्रादुर्भावनसमर्थौ नान्त्यो प्रक्षीणशक्तिकाविति बुवाणानामपि भवतः यास्मकस्तथैव मत्स्येतथ्यो विशेषामावाद इत्यविवादेन संसारकारणत्रित्वसिदेन संसारकारणत्रित्वानुपपतिः। जो ही विपर्यय और असंयम ( अवैराग्य ) झूठे अर्थोके श्रद्धान करनेकी शक्तिसे सहित होते हुए मूलकारण संसारक माने गये हैं, वे दोनों ही जब मिथ्याश्रद्धानकी शकिसे युक्त होंगे तब तो संसारकी संतानको भविष्यमे उत्पन्न कराने के लिये समर्थ है। किंतु जब उनकी शक्ति कमसे घटती घटती सर्वथा नष्ट हो जावेगी, तब अंतके विपर्यय और अवैराग्य पुनः संसार दुःस पाप आदिकी धाराको नहीं चलायेंगे । इस प्रकार कहनेवाले बौदोंको भी संसारका कारण उस ही पकारसे सीन स्वरूप निर्णय कर लेना चाहिये । क्योंकि मिथ्याश्रद्धान-युक्त दो को और मिथ्या दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन सीनको संसारका कारण कहने में कोई अंतर नहीं है । शाकसे पूरी, कचौडीको खाना तथा शाक, पूरी, कचौडी इन तीनको खाना ये दोनों एक ही बात हैं । इस प्रकार झगडा करनेके बिना ही संसारके कारणोंको तीनपना सिद्ध हो जाता है । इस कारण मोक्षमार्गके समान संसारकारणको भी तीनपना असिद्ध नहीं है। युक्तितश्च भवतोस्रयात्मकत्वं साधयमाहायुक्तियोंसे भी संसारके कारणों को तीनस्वरूपपनेका साधन कराते हुए ग्रंथकार कहते हैं । मिथ्यागादिहेतुः स्यात्संसारस्तदपक्षये । क्षीयमाणत्वतो वातविकारादिजरोगवत् ॥ १०५॥ संसार ( पक्ष ) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र इन सीन हेतुओंका कार्य होना चाहिये (साध्य ) । क्योंकि उन मिथ्यादर्शन आदिके क्रम क्रमसे क्षय होनेपर संसार भी कम कमसे क्षीण होता जारहा देखा जाता है ( हेतु)। जैसे कि वात, पित्त, कफके विकारों आदिसे उत्पन्न हुए रोग अपने निदानोंके क्षय हो जानेसे क्षीण हो जाते हैं ( अन्वयदृष्टांत )। यो यदपक्षये शीयमाणः स तदेतुर्यया वातविकारायपक्षीयमाणो वातविकारादिको रोगः मिथ्यादर्शनशानचारित्रापक्षये धीयमाणश्च संसार इति । अत्र न तावदयं वासिद्धो हेतुः मिथ्यादर्शनस्यापक्षयेऽसंयतसम्यग्दृष्टेरनन्तसंसारस्थ क्षीयमाणत्वसिद्धः संख्यातभवमात्रतया तस्य संसारस्थितेः। यह बनी हुयी व्याप्ति है कि जिसके क्रमसे क्षय होनेपर जो क्षयको पाप्त होता नामा है, वह उसका कारण समझा जाता है। जैसे कि वायुके विकार, पित्तका प्रकोप आदि कारणों के
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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