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________________ २१२ तत्वार्थचिन्तामणिः लेना | जब कि वे कपिलादिक अपने अभीष्ट मार्ग से सर्व प्रकार स्वयं च्युत होरहे हैं, क्यों कि सर्वथा क्षणिक, नित्य ज्ञानाद्वैत आदि एकान्तोंको प्रतिपादन करनेवालोंके मतमें मोक्षमार्ग की समीचीन व्यवस्था सिद्ध नहीं होती है। अतः इस प्रकरणका अब उपसंहार किया जाता है । ततः प्रमाणान्वितमोक्षमार्गप्रणायकः सर्वविदस्तदोषः । स्याद्वादभागेव नुतेरिहाहैः सोऽईन्परे नेहितहीनमार्गीः ॥ १०१ ॥ उस कारण से प्रमाणों के द्वारा निर्णीत हुए मोक्षमार्गका आद्य निर्माणकर्ता, सर्वज्ञ, दोषोंसे रहित और स्याद्वाद सिद्धान्तका धारी अधिपतेि वह श्री जिनेन्द्रदेव अर्हन्त ही विचारशील साधुओंको इस ग्रन्थ स्तवन करने योग्य है । दूसरे कपिल, सुगत आदिक तो अपने अभीष्ट मार्गसे अपने आप स्खलित हो रहे हैं । बुद्ध आदिके मलमे उनके मतानुसार ही संसारके दुःखोंसे मुक्त होनेका उपाय नहीं बनता है। I इति शास्त्रादौ स्तोतव्यविशेषसिद्धिः । इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्रकी आदि में कहेंगये मंगल छोकद्वारा स्तवन करने योग्य विशिष्ट अर्हत की सिद्धि कर दी है। एक · इस प्रकार आचार्य महाराज के द्वारा प्रतिपादन की गयी दूसरी वार्त्तिकका इस एक सौ मी वार्त्तिकतक व्याख्यान करके संकोच किया गया है । अर्थात् सुगत आदि स्तुति करने योग्य नहीं हैं, किन्तु उनसे विशिष्टताको धारण करनेवाले श्रीअर्हन्त परमेष्ठी ही विद्वान् मुनीश्वरोंकी स्तुतिकों धारण करने योग्य हैं, जोकि द्वितीय वाचिकमें कहा गया था। पूर्वोक्त प्रकरणों में इसी बात को भासहित सिद्ध कर दिया है। उन्गस्वामी महाराजको " मोक्षमार्गस्य नेतारं " इत्यादि मंगलाचरण अभीष्ट है यह मी इससे ध्वनित होता है । स्वसंवेदनतः सिद्धः सदात्मा बाधवर्जितात् । तस्य क्ष्मादिविवर्तात्मन्यात्मन्यनुपपत्तितः ॥ १०२ ॥ अब तीसरी वार्तिक के अनुसार श्रेयोशले युक्त होनेवाले आत्माको साधते हैं सो सुनिये । जो ज्ञान सकल बाधकोंसे रहित है, वह प्रमाण है। प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका 1 | प्रत्यक्ष दो भेद हैं। सांव्यवहारिक और मुख्य | वहां सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाणका एक भेद स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी है । संसारी जीवोंका आत्मा तथा उसके ज्ञान आदि पर्यायें स्वसंवेदन प्रत्यक्षके विषय हैं । जब सर्दा बाघकोंसे रहित स्त्रसोइन प्रत्यके द्वारा आस्मा स्वयं सिद्ध होरहा है,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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