SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वाचिन्तामणिः अपने प्रतिभासको ठीक तरहसे उत्पन्न करता हुआ आत्मा मला अकर्ता कैसे हो सकता है : ऐसा मीमांसकों के कहनेपर हम जैन पूंछते हैं क्यों जी ! अपने पतिभासको पैदा करता हुआ अर्थ भी अकर्ता कैसे हो सकता है ! बताओ । यदि तुम यों कहोगे कि अर्थ जड है अत: अप्तिरूप प्रतिभासका यह जनक नहीं है । इस प्रकार बतानेपर तो हम कहते हैं कि उस ही कारणसे वह अर्थ अपने प्रतिभासको नहीं उत्पन्न करे अर्थात् प्रतिभासका बह अर्थ कारण भी न बन सकेगा क्योंकि वह जड है। यदि फिर भ्याप यह कहोगे कि दुसो इंद्रिय. पुण्य, पाप, आदि अन्य कारणोसे प्रतिभासके उत्पन्न हो जाने पर अर्थप्रतिभासता है किंतु वह स्वयं अपने प्रतिभासको उत्पन्न नहीं कराता है। ऐसा कहनेपर तो आत्मामें भी यही बात समानरूपसे लागू हो जाती है कि वह आत्मा भी अपने ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे प्रतिभासके उत्पन्न हो जाने पर स्वयं प्रकाशित हो जाता है। उन क्षयोपशम, मन आदि कारणोंकी नहीं अपेक्षा कर अपने प्रतिभासको नहीं उत्पन्न कराता है। यहां सक परपक्षनिराकरण-पूर्वक अपना सिद्धांत पुष्ट कर दिया है । तदेवमात्मनः कर्तृत्वकर्मत्वापलापवादिनौ नान्योन्यमतिशय्येते । इस कारण अबतक विनिगमनाविरहसे यह जाना गया कि इस प्रकार आत्माके कर्तृत्वका और आत्माके कर्मत्वका अपलाप करनेवाले दोनों वादी परस्परमें एक दूसरेसे कोई अधिक नहीं है। चमत्कारी आत्माके कर्तृत्व और कर्मत्वको न माननेवाले बौद्ध और मीमांसकोंमें एक भी रत्ती नहीं चढ़ती है । दोनों ही लोकप्रसिद्ध आत्माके कर्तृत्व और कर्मत्वको सिद्ध करनेवाली प्रतीतिओंका तिरस्कार कर रहे हैं। ये तु प्रतीत्यनुसरणेनात्मनः स्वसंविदितात्मत्वमाहुस्ते करणज्ञानात्फलज्ञानाच्च भिभस्यामिन्नस्य वा भिन्नाभिन्नस्य वा। जो भेद वादो प्रतीति के अनुसार चलने के कारण आत्माको स्वके द्वारा विदित होजानारूप स्वसंविदित कहते हैं, उनसे तो हम जैन पूंछते कि वे प्रमाणात्मक करण ज्ञानसे और ज्ञप्तिस्वरूप फलज्ञानसे मिन्न होरहे आत्माको या अभिन्न कहे गये आत्माको अशा सर्वथा भिन्नाभिन्न मानेगये आत्माको स्वसंविदितपना कह रहे है ? स्पष्ट कर बतलाये । भिन्नस्य करणज्ञानात्फलज्ञानाच्च देहिनः । खयं संविदितात्मत्वं कथं वा प्रतिपेदिरे ॥ २१९ ॥ तीन पक्षों से यदि पहिला पक्ष लोगे तो करणज्ञान और फलज्ञानसे सर्वथा भिन्न कह दिये गये आत्माका अपने ही द्वारा संविदित स्वरूपपना ये कैसे समझ सकते हैं। कहो, जो आत्मा ज्ञानोंसे 49
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy