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________________ ૮ सत्त्वाचिन्तामणिः - सर्वथा भिन्न है वह अपना स्वयं वेदन कैसे कर सकता है ? कोई युक्ति नहीं है। सूर्यको प्रकाश से सर्वथा भिन्न मानने पर सूर्यका अपनेको प्रकाश करना कैसे भी नहीं बन सकता है । यदि सर्वथा सर्वस्माद्वेदनाद्भिनं तन्न स्वसंविदितं यथा व्योम तथात्मतत्वं श्रोत्रियाणामिति कथं तस्येति संप्रतिपन्नाः । ऐसा नियम है कि जो वस्तु सम्पूर्ण ज्ञानोंसे सर्वथा भिन्न है वह स्वसंवेदी नहीं हो सकती है, जैसे कि आकाश । इसी प्रकार प्राभाकर, मीमांसकों ने आत्मतत्त्वको ज्ञानसे मिन्न मान रखा है ! ऐसी दशा में महा यों उस आत्मा के उस स्वसंविदितपने को भी वे कैसे समझ सकते हैं ! अर्थात् कैसे भी नहीं। काजलको कालापन से यदि भिन्न मान लिया जावे तो काजल काला नहीं जाना जा सकता है । यदि हेतुफलज्ञानादभेदस्तस्य कीर्त्यते । परोक्षेतररूपत्वं तदा केन निषिध्यते ॥ २२० ॥ परोक्षात् करणज्ञानादभिन्नस्य परोक्षता । प्रत्यक्षाच्च फलज्ञानात्प्रत्यक्षत्वं हि युज्यते ॥ २२१ ॥ I यदि प्रमाणरूप करणज्ञान और ज्ञातिरूप फलज्ञानसे आत्माका अभेद कहोगे तो आत्माको परोपना और प्रत्यक्षपना किसके द्वारा रोका जायेगा ? अर्थात् कोई निषेध नहीं कर सकता है । मीमांसप्रमाणात्मक करणशानको परोक्ष माना है और इतिस्वरूप फलज्ञानको प्रत्यक्ष माना है । तथा च परोक्ष प्रमाणज्ञान से अभिन्न माने गये आत्माको परोक्षपन हो गया और प्रत्यक्ष कहे गये फलज्ञानसे अभिन्न आत्माको नियमतः प्रत्यक्षपना भी युक्तियों करके ठीक प्राप्त हो गया । परोक्षात् करणज्ञानात् फलज्ञानाच्च प्रत्यक्षादभिन्नस्यात्मनो न परोक्षता, अहमिति कतया संवेदनान्नापि प्रत्यक्षता, कर्मतया प्रतिभासाभावादिति न मन्तव्यम् दत्तोत्तरत्वात् । परोक्ष करणज्ञानले और प्रत्यक्ष फलज्ञानसे तादात्म्य सम्बंध रखते हुए आस्माको सर्व प्रकार से परोक्षपना नहीं आता है प्रभाकर ऐसा विश्वास रक्खें । तथा मैं जानता हूं, मैं देखता हूं, इस प्रकार कर्ता रूपले आत्माका प्रत्यक्ष संवेदन भी हो रहा है । अथवा मीमांसक यों कहें कि परोक्ष करणानसे और प्रत्यक्ष फलज्ञान से अभिन्न हो रहे आत्माका भले ही परोक्षपना न होवे, क्योंकि मैं हूं ऐसा कर्तास्वरूपसे संवेदन हो रहा है किंतु एतावता आत्मा प्रत्यक्ष मी तो सिद्ध नहीं हो पाता है। क्योंकि Renter कर्मरूपसे ग्रंथकार कहते हैं कि प्रतिभास नहीं होता है । यह मीमांसकों को नहीं मानना चाहिये। क्योंकि इसका उत्तर हम पहिले दे चुके हैं। आत्मा अपने को जाननेमें कर्म होकर किसी से प्रत्यक्षका विषय हो जाता है 1
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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