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________________ सवायचिन्तामगिः ११९ तथैवोभयरूपत्वे तस्यैतद्दोषदुष्टता । स्याद्वादाश्रयणं चास्तु कथञ्चिदविरोधतः ॥ २२२ ॥ इस ही प्रकार तृतीयपक्षके अनुसार उस आत्माको करणज्ञान और फलज्ञानसे सर्व प्रकार करके भेद और अभेद यों उभयरूप माना जावेगा । ऐसी दशा में तो एकातरूपसे भेद या अभेद पक्षके सदृश इनके उभयपक्षमें भी इन्हीं दोषोंसे दूषित होने का प्रसंग है । इस दोष निवारणार्थ यदि सर्वथा उभय पक्ष न मानकर कथञ्चित् भेद अभेदको स्वीकार करोगे, तब तो स्याद्वाद सिद्धांसका ही सहारा ले लिया समझो । क्योंकि प्रमाणज्ञान और प्रमितिरूप ज्ञानसे आत्माका कथञ्चित् भेद और किसी अपेक्षासे अभेदको अवलम्ब करनेपर कोई विरोध नहीं है । सर्वथा भिन्नाभिन्नात्मकचे करपाफलज्ञानादात्मनस्तदुभयपक्षोक्तदोषदुष्टता, कथचिनिभात्मकरवे साद्वादाश्रयणमेपास्तु विरोधाभावात् । करणरूप प्रमाणज्ञान और फलस्वरूप प्रमितिज्ञानसे आत्माको सर्वथा भिन्न या अभिन्न स्वरूप माना जावेगा तब तो पूर्वमें भेद और सर्वथा अभेदके एकांत पक्षामें कहे गये उन देषोंसे दूषित होना पड़ेगा । प्रत्येक एकान्तमे जो जो दोष आते हैं, उन दोनों एकांतोंके मिलनेपर भी उभय पक्षमे वे सभी दोष आ जाते हैं। हां, कथञ्चित् मिन्न और अभिन्न स्वरूप माननेपर तो अनेकांत मतका आश्रय करना ही हुआ। क्योंकि उन दोनों एकांतोंसे कञ्चित् भेद या अभेद निराली तीसरी ही अवस्था है । अत: उन दोनों एकान्तों के दोष कथञ्चित् पक्षमें लागू नहीं होते हैं। दो है अवयब जिसके उसको उभय कहते हैं। उभ शब्दका अर्थ दो है और उभय शब्दका अर्थ दोका मिलकर बना हुआ एक न्यारा पदार्थ है । तमी तो व्याकरणम उम शब्दको द्विवचनान्त माना है । और उभय शब्दको एकवचन स्वीकार किया है। कहीं कहीं उभय शब्दका बहुवचन भी इष्ट किया है । परस्परमें सर्वथा विरुद्ध ऐसे दो पदार्थोंका एकीभावरूप मिश्रण नहीं हो सकता है । दूध या पानी तथा दूध और बूरेका एकीकरण हो जाता है । दूध और पारेका मिश्रण नहीं होता है । अतः सर्वथा भेद अमेदका भी उमय बनना शब्दशास्त्र और अर्थशाखसे अनुचित है किन्तु कथञ्वित् भेद और कथञ्चित् अभेदका विरोध न होने के कारण संकलन हो जाता है। अतः प्रमाणदृष्टि से आत्माके साथ करणज्ञान और फलज्ञानका कथञ्चित् भेद और अभेद मानना न्याय्य है । एक देवदत्त पितापन, पुत्रपन, माननाएन, मायापन, आदि धोके समान अपेक्षाभेदसे भेद और अभेदमें कोई विरोध नहीं आता है। स्वावरणक्षयोपशमलक्षणायाः शक्तेः करणज्ञानरूपायाः द्रव्याधियणादभिन्नस्यास्मनः परोसत्वम्, स्वार्थव्यवसायात्मकाच्च फलज्ञानादभिन्मस्य प्रत्यक्षत्वमिवि स्थाबादा
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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