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________________ सवाचिन्तामणिः श्रयणे न किंचिद्विरोधमुत्पश्यामा सर्वथैकान्ताश्रयणे विरोधात् । तस्मादात्मा स्यात्परोक्ष स्यात्प्रत्यक्षः । • अपने नियत ज्ञानको रोकनेवाले ज्ञानावरण कर्भके सघाती स्पर्षकको उदयप्रकारका फल न देते हुये झड जानास्त्रप क्षय तथा भविष्य उदय आनेवाले ज्ञानावरण कर्मोंका सत्तामें अवस्थित बने रहना स्वरूप उपशम और देशघाती प्रकृतियों के उदय होनेपर जो आत्मामें विशुद्धि होती है, उसको लब्धि कहते हैं । लब्धिरूप शक्तिको प्राप्त करनेमें भविन्यमें आनेवाले कमाके उपशमकी इसलिये आवश्यकता है कि अपकर्षण न हो सके या उदीरणाके द्वारा ये कर्म उदयावली में न आ जाये तथा देशघाती प्रकृतियों के उदय बने रहने से चार क्षायोपशमिक ज्ञानाम परिपूर्णता या पूरी स्पष्टता नहीं होने पाती है। सर्थयातिप्रकृतियोंका उदयाभावी क्षय तो ज्ञानकी उत्सत्तिम प्रधान कारण है ही, ऐसे क्षयोपशम स्वरूप जाननेकी शक्तिको अन्तरंग करणास्मक ज्ञान कहते है। द्रव्यार्थिक नयका आसरा लेकर विचारा जावे तो वह लब्धि और आत्मा अभिन्न हैं । इस कारण छद्मस्थ जीवोंको लब्धिरूप करणज्ञान जब परोक्ष है तो उससे अभिन्न आस्मा भी परोक्ष सिद्ध हुआ । और अपना तथा अर्थका निश्चय करनेवाले फलज्ञानका प्रत्यक्ष होता है तो उस उपयोग स्वरूप फलज्ञानसे अभिन्न माने गये मात्माका मी प्रत्यक्षपना सिद्ध हुआ । इसपर स्याद्वादमतका सहारा लेनेसे तो हमको कोई भी विरोध नहीं दीख रहा है। हां, सर्वथा एकान्तका अवलम्प लेनेपर नैयायिक और बौद्धोको विरोध दोष लगेगा । उस कारणसे अबतक सिद्ध हुआ कि क्षयोपशम- स्वरूप लब्धिसे अभिन्न हो रहा आला कथञ्चित् परोक्ष है और उपयोगस्वरूप आलाका प्रत्यक्ष भी होता है । यो अपेक्षासे कयश्चित् लगा कर आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध हुआ। प्रभाकरस्याप्येवमविरोधः किं न सादिति चेत् न, करणफलज्ञानयोः परोक्षप्रत्यअयोरव्यवस्थानात् । तथाहि प्रभाकर मीमांसक कहते हैं कि स्याद्वादियों के समान हमारे मतमें भी आत्माके प्रत्यक्षपने और परोक्षपने का इस प्रकार अविरोध क्यों न हो जाये ! आचार्य करते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि मीमांसकों द्वारा माने गये करणज्ञानका परोक्षपना और फलज्ञानका प्रत्यक्षपना युक्तियोसे व्यवस्थित नहीं हो पाता है। भावार्थ-प्रामाकरोंसे माना गया करणज्ञान परोक्ष सिद्ध नहीं है। उसका सब जीवोंको स्वसंवेदनसे प्रत्यक्ष हो रहा है। यद्यपि लब्धिरूप ज्ञान परोक्ष है किंतु उसको माभाकर इष्ट नहीं करते हैं। प्रभाकर जिस फज्ञानका प्रत्यक्ष होना मानते हैं, वह करणज्ञानसे सर्वथा सिद्ध होकर व्यवस्थित होता नहीं है । इसी बातको स्पष्टतासे दिखलाते हैं... प्रत्यक्षेऽर्थपरिच्छेदे स्वार्थाकारावभासिनि । ... . किमन्यत्करणज्ञानं निष्फलं कल्प्यतेऽमुना ॥ २२३ ।।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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