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________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः होना है तो अपना और अर्थका उल्लेख कर प्रकाशित होनेवाले अर्थज्ञानका यदि प्रभाकर प्रत्यक्ष इससे एवं दूसरा करणजान व्यर्थ ही प्रमाकरद्वारा क्यों कल्पित किया जा रहा है ? जिसकी कि कोई आवश्यकता नहीं। यह वार्त्तिक मट्ट और ममाकर दोनोंके लिये कही गयी है || ३४१ अर्थपरिच्छेदे पुंसि प्रत्यक्ष स्वार्थाकारव्यवसायिनि सति निष्फलं करणज्ञानमन्यच्च फलज्ञान, तत्कृत्यस्यात्मनैव कृतत्वादिति तदकल्पनीयमेव । जब मट्टमतानुयायी मीमांसक अर्थको जाननेवाले एवं स्त्रको तथा अर्थको उल्लेखसहित समझने और समझानेवाले आत्माका यदि प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं, तब आत्मा ही अर्थोक। परिच्छेद कर लेता है, तो ऐसी दशामें करणज्ञान और उससे भिन्न एक फलज्ञान इन दोनोंका स्वीकार करना व्यर्थ है, क्योंकि उनसे होनेवाले कार्यको आत्मा ही कर देता है । इस कारण प्रमाणज्ञान और फलज्ञानकी कल्पना ही मीमांसकों को नहीं करनी चाहिये । स्वार्थ व्यवसायित्वमात्मनोऽसिद्धं व्यवसायात्मकत्वात्तस्येति चेत् न, स्वव्यवसायिन एवार्थ व्यवसायित्वघटनात् । तथा झात्मार्थ व्यवसायसमर्थः सोऽर्थव्यवसाय्येवेत्यनेनापास्तम्, स्वव्यवसायित्वमन्तरेणार्थव्यवसितेरनुपपत्तेः कलशादिवत् । I मीमांसक कहते हैं कि उस आत्माका स्वरूप ही निश्चयात्मक है। अतः निश्चय कर लेनेवापन आत्माका स्वभाव नहीं है, तभी तो वह स्वका निश्चय नहीं कर पाता है । अतः अपनेको और अर्थको निश्चय करनेवालापन आत्मा के सिद्ध नहीं है जोकि जैन कह रहे हैं । आचार्य समझाते हैं कि यह उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अपना निश्चय करनेवाले पदार्थ के ही अका व्यवसायीपन घटित होता है यह स्पष्ट है । इस कथनसे किसीका यह मंतव्य भी खण्डित हो जाता है कि " आला अर्थ निश्चय करने में समर्थ है, अतः वह अर्थको ही निश्वयकर जान सकता है स्त्र को नहीं " क्योंकि अपना निश्चय किये विना अर्थका निश्चय करना सिद्ध नहीं होता है। जैसे घट, पट आदिक अपनेको नहीं जानते हैं। तभी तो वे किसी अर्थका निश्चय नहीं कर सकते हैं ! सत्यपि स्वार्थ व्यवसायिन्यात्मनि प्रमातरि प्रमाणेन साधकतमेन ज्ञानेन भाव्यम् । करणाभावे क्रियानुपपत्तेरिति चेत् न, इन्द्रियमनसोरेव करणत्वात् । मीमांसक कहते हैं कि अच्छी बात है । अपनेको और अर्थको निश्चय करनेवाला 'प्रमाता मामा सिद्ध हुआ ऐसा होनेपर फिर भी ज्ञतिक्रियाका साधकतम यानी प्रकृष्ट उपकारक प्रमाण ज्ञान अवश्य होना चाहिये। क्योंकि करणके विना क्रिया हो नहीं सकती है । अतः हमारा करणज्ञान मानना व्यर्थ नहीं हुआ। मंथकार कहते हैं कि बद करना तो ठीक नहीं है, क्योंकि इमि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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