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________________ ३३६ तत्वार्थचिन्तामणिः यदि पुनरन्योऽर्थः कर्म स्यात्तदा प्रतिभासमानोऽप्रतिभासमानो वा १ प्रतिभासमानश्चेत् कर्ता स्यात्ततोऽन्यत्कर्म वाच्यम्, तस्यापि प्रतिभासमानत्वे कर्तृत्वादन्यत्कर्मेत्यनवस्थानाम कचित्कर्मत्वव्यवस्था । यदि फिर आप मीमांसक दूसरा पक्ष ग्रहण करोगे ? यानी अन्य पदार्थ कर्म है, तब तो हम पूंछते हैं कि प्रतिभास करनेवाले पदार्थको कर्म कहोगे ? या नहीं जाननेवाले पदार्थको कर्म कहदोगे ? बतलाइये | यदि प्रतिभास करनेवालेको धर्म कहोगे, तब वह कर्ता भी होगा ! कर्ता में शानच् प्रत्ययं किया गया है । तब तो उससे न्यारा कर्म दूसरा कहना पडेगा । क्योंकि आपके ममे कर्ता और कर्म एक पदार्थ माने नहीं गये हैं और फिर उस दूसरे भिन्न कर्मको भी प्रतिभास करने वाला मानोगे तो वह फिर कर्ता बन बैठेगा । तथा च उससे भी न्यारा कर्म तीसरा ही मानना पड़ेगा। वह तीसरा भी कर्म प्रतिभासमान माना जावेगा तो चौथे भिन्न कर्मकी आवश्यकता होगी। इस तरह अनवस्था हो जायेगी। कहीं भी ठीक ठीक कर्मपनेकी व्यवस्था न हो सकेगी। यदि पुनरप्रतिभासमानोऽर्थः कर्मोच्यते तदा खरश्रृंगादेरपि कर्मत्वापत्तिरिति न किञ्चित्कर्म स्यादात्मवदर्थस्यापि प्रतिभासमानस्य कर्तृत्व सिद्धेः । दूसरे विकल्पके दूसरे विकल्पके अनुसार फिर यदि आप नहीं प्रतिभास होरहे अर्थको कर्म कहोगे, तब तो गधेके सींग, बन्ध्यापुत्र आदि असस्पदार्थों को भी कर्मपनकी आपत्ति हो जावेगी । इस प्रकार कोई भी पदार्थ कर्म नहीं बन पायेगा। क्योंकि आत्माके समान अर्थ मी प्रतिमास रहे हैं। अतः अर्थी को भी कर्तापन सिद्ध हो जावेगा । कर्मपना नहीं आ सकेगा । यदि पुनरर्थः प्रतिभासजनकत्वादुपचारेण प्रतिभासत इति न वस्तुतः कर्ता तदात्मापि स्वप्रतिभासजनकत्वादुपचारेण कर्ताऽस्तु विशेषाभावात् । । फिर यदि मीमांसक यों कहेंगे कि प्रतिभासक्रियाका कर्त्ता मुख्यरूपसे आत्मा ही है । प्रतिमासका जनक हो जानेके कारण उपचारसे अर्धमतिभासक्रियाका कर्ता आरोपित कर दिया जाता है । वास्तव में अर्थ कर्ता नहीं है। तत्र तो हम जैन भी कह सकते हैं कि अपने प्रतिभासका अनक होनेसे आत्मा भी उपचारसे ही कर्ती होओ, परमार्थसे नहीं । जैसे प्रतिभासका जनक आत्मा है, वैसे ही प्रतिमासका जनक अर्थ भी है, कोई अन्तर नहीं है, तो फिर आत्माको ही कर्ता नाका पक्षपात क्यों किया जाये ? स्वप्रतिभासं जनयश्वात्मा कथमकर्तेति चेदर्थः कथम् १ जडत्वादिति चेचत एव स्वप्रतिभास माजीजनत् । कारणान्तराज्जाते प्रतिभासेऽर्थः प्रतिभासते न तु स्वयं प्रतिभासं जनयतीति चेत्, समानमात्मनि । सोऽपि हि स्वावरणविच्छेद । ज्जाते प्रतिभा से विभासते न तनिरपेक्षः स्वप्रतिभासं जनयतीति ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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