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________________ तस्यार्थचिन्तामणिः ३३५ 1 I जिस ही समय आत्मा अपने आप घट, पट आदि अर्थोंको जान रहा है उसी समय दूसरे पुरुषों से अनुमान, अर्थापत्ति और भागमप्रमाणद्वारा जाना जा रहा है । यह प्रतीतियोंसे प्रसिद्ध है । इस कारण स्वयं कर्ता भी आत्मा का दूसरोंके ज्ञानका कर्म हो जानेसे सहानवस्थाननामका विरोध नहीं है । जो देवदत्त घट, पट आदिकके जाननेका स्वयं कर्ता है वही जिनवच, इन्द्रदत्त के अनुमान, अर्थापत्तिरूप ज्ञानोंका जानने योग्य कर्म भी है । यदि मीमांसक ऐसा कहेंगे तब तो स्वयं अपने जानने का कर्ता और कर्म होने में भी आत्माका कोई विशेष नहीं होवे । क्योंकि मैं देवदत्त अपनी आत्माको स्वयं जान रहा हूं, मैं जीवित हूं, मैं स्वस्थ हूं, मैं विचारशाली हूं, इत्यादि प्रतीतियों में आत्मा स्वयं कर्ता और कर्म रूपसे साथ साथ सिद्ध हो रहा है। आप मीमांसक यों न कहना कि आत्मामें कर्मपनेकी प्रतीति होना व्यवहारसे आरोपित है, वास्तविक नहीं। ऐसा कहने पर तो आत्मामें कर्तापनकी प्रतीतिका भी आरोपितपना होनेका प्रसंग आता है । हम भी यों कह सकते हैं कि इंधनको अभि जला रही है । प्रतीतिमें दाइ क्रियाका अभिरूप - कर्ता में समवाय सम्बन्ध देखा जा रहा है। उसके अनुसार अर्थको आत्मा आन रहा है। यहां भी जानना रूप क्रियाका आमा - कर्ता समवायसम्बन्धसे आरोप कर लिया जाता है। क्योंकि स्वात्मा में क्रियाका ठीक ठीक रहना तो नहीं सम्भव है । अतः कर्तापनका उपचार मान लिया गया है । I परमार्थतस्तु तस्य कर्तृत्वे कर्म स एव वा स्यादन्यो वार्थः स्यात् १ स एव चेद्रिरोधः कथमन्यथैकरूपतात्मनः । नानारूपत्वात्तस्यादोष इति चेन, अनवस्थानात् । पूंछते हैं कि वे यदि मीमांसक वास्तविक रूपसे उस आत्माको कर्ता मानेंगे तो हम किसको कर्म कहेंगे । क्या वह आत्मा ही जाननेका कर्म है अथवा क्या अन्य कोई पदार्थ कर्म होगा ? बताओ । यदि उस आत्माको ही कर्म कहोगे तब तो विरोध है । कर्तापन और कर्मपन ये दोनों धर्म आपके सिद्धान्तानुसार एक आत्मामें एक ही समय ठहर नहीं सकते हैं अन्यथा यानी इस ढंगसे अन्य प्रकार अनुसार यदि दोनों धर्मोका एक आत्मामें ठहरना मानोगे तो आपके माने गये आत्माका एक ही धर्मसे सहितपना कैसे बनेगा ? कहिये । अनेक धर्म मान लेवेंगे । अतः यदि मीमांसक यों कहें कि हम उस आत्माके एक समय कोई दोष नहीं है । सिद्धांती कहते हैं कि सो तो आप नहीं मान सकते हैं क्योंकि आपके ऊपर अनवस्था दोष आता है । जब आत्मा अपनेको जानेगा, तब अपने कर्तापन और फर्मपन धर्मको अवश्य जानेगा । उन धर्मो मी तीसरे कर्तापन धर्मको जानेगा । तब तीनों कर्म हो जायेंगे। यहां भी कर्तापन और कर्मपनका प्रश्न उठाया जावेगा । अतः आत्मासे अभिन्न अनेक धर्मोकी दृष्टि बढ जानेके कारण अनवस्था हो जावेगी । इस तरहसे आपके पदार्थ की व्यवस्था नहीं हो सकेगी ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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