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ताचिन्तामणिः
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मान नहीं मानते हुये असिद्ध कह रहे हो ? या कथञ्चित् प्रतीयमान नहीं मानते हो ? बताओ, यदि पहिला पक्ष लोगे यानी सर्व प्रकारसे आत्माकी प्रतीति नहीं होती है तब तो दूसरोंके द्वारा अनुमान, आगम प्रमाणोंसे भी आत्माकी प्रतीति न हो सकेगी । आत्माको जान लेनेक अभावका प्रसज्ञ आवेगा । यदि दूसरा पक्ष लोगे तो यानी कथञ्चित् आत्माकी प्रतीति नहीं होती है अर्थात् किसी अपेक्षा से आत्माकी प्रतीति हो रही है । तब तो हमारा हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि हमने भी आत्मा को उस ही प्रकार कथञ्चित् प्रत्यक्ष होनेका दी प्रकरण डाला है। मामाकी अनेक पर्यायों का तो सर्वे के सिवाय किसीको ज्ञान होता ही नहीं है । अतः अनेक अंशों में मात्मा छद्मयोंके द्वारा अप्रत्यक्ष है ।
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स्वतः प्रतीयमानत्वमसिद्धमिति चेत्, परतः कथं तत्सिद्धम् ९ विरोधाभावादिति चेत् स्वतस्तत्सिद्धों को विरोधः १ कर्तृस्वकर्मत्वयोः सहानवस्थानमिति चेत्, परतस्त सिद्धौ समानम् ।
आप मीमांसक आत्माको अपने आपसे प्रतीत हो जानेका कर्मपना असिद्ध है। यदि ऐसा कहोगे तब तो हम पूंछते हैं कि दूसरोंके द्वारा प्रतीत होनेका वह कर्म बन जाना कैसे सिद्ध है ? बतलाइये ।
यदि आप कहें कि दूसरे के द्वारा प्रतीत होने में और कर्म बनने में कोई विरोध नहीं है । इस कारण आत्मा दूसरोंके ज्ञानका विषयभूत कर्म बन सकता है। ऐसा कहनेपर इम जैन कहते हैं कि स्वतः अपने आप उस आत्माके कर्म सिद्ध हो जाने कौनसा विरोध आता है ! बहाओ | कर्तापन और कर्मपन साथ रहकर एक जगह नहीं ठहर सकते हैं, इस प्रकार सहानवस्था नामका विरोध है, यदि ऐसा कहोगे तो दूसरोंके द्वारा आत्मा के जाननेकी सिद्धि होनेपर भी वैसा ही सहानवस्थान दोष समान रूपसे लगता है । जैसे कि एक पुल उष्णस्पर्श और शीतस्पर्शका एक समयमे रहना विरुद्ध है। किसी देवदत्त जिनदत्तकी अपेक्षासे ये दोनों अविरुद्ध नहीं होसकते हैं। वैसे ही यदि दूसरे मनुष्योंके द्वारा जाननेपर आत्मा कर्म न बन सकेगा; तब तो दूसरे जीवोसे अनुमान, आगम, प्रमाणीके द्वारा भी आत्मा क्यों जाना जावेगा ? आत्मा अप्रमेय तो नहीं है ।
दैव वपर्यं प्रत्येति तदैव परेषानुमानादिनात्मा प्रतीयत इति प्रतीतिसिद्धत्वान सहानवस्थान विरोधः स्वयं कर्तृत्वस्य परकर्मस्वेनेति चेत्, तर्हि स्वयं कर्तृस्वकर्मस्वयोरप्यात्मानमहं जानामीत्यत्र सहप्रतीतिसिद्धत्वाद्विरोधो माभूद । न चात्मनि कर्मप्रती - तिरुपचरिवा, कर्तृत्वप्रतीतेरप्युपचरितत्वप्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुं दहत्यग्निरिन्धनमित्यत्र क्रियायाः कर्तृसमवायदर्शनात्, जानात्यात्मार्थमित्यत्रापि जानातीति क्रियायाः कर्तृसमवायोपचारः ।