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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः संशय आदि चार युगलोंमें अन्वयध्यमिचार और व्यतिरेकव्यभिचार दोष आते हैं। इस कारण उस तत्त्वोंके जाननेकी हच्छावाला ही विद्वान् वक्ताके द्वारा समझाया जाता है । इस प्रकार पर (उत्कृष्ट) गुरु अर्हन्तोंने और अपर-गुरु गणधर आदिकोने अर्थकी और अंथ रचनाकी अपेक्षासे शास्त्रके आदिमे पहिले “ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ सूत्रका प्रवर्तन किया है, वह युक्त ही है। क्योंकि उन गुरुओं के द्वारा प्रतिपादित किये हुए सूत्रका मोक्षमार्ग रूपी विषय उन उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट शिष्यों करके समझने के लिये इच्छित हो रहा है। विनीतोंमें प्रधान गणधर महाराज तीर्थक्करोंके उत्कृष्ट शिष्य हैं । और आरातीय विद्वान् अपर शिष्य हैं। इन सबको मोक्षमार्गको जाननेकी बलवती अभिलाषा हो रही है। तमी तो अर्थरूपसे श्री अन्तिके द्वारा और गणघर, धरसेन, भूतबलि पुष्पदंत, उमास्वामी आदिके द्वारा अंथरूपसे उक्त सूत्र प्रवर्तित हो रहा है यानी गुरुशिष्य परिपारीसे आम्नायपूर्वक चला आ रहा है । ननु निर्वाणजिज्ञासा युक्ता पूर्व तदर्थिनः । परिज्ञातेभ्युपेयेऽथें तन्मार्गों ज्ञातुमिष्यते ॥ २४९ ॥ यहां शंका है कि उम मोलके अभिलाषी शिष्यकी पहिले मोक्षको जानने की अभिलाषा • करना युक्त है। वह सहसा मोक्षमार्गको क्यों जानना चाहता है ! । बात यह है कि पहिले प्राप्त करने योग्य पदार्थका निर्णय हो जाने पर पीछे उसके मार्गको जानना नियमके अनुसार इष्ट किया है। यो येनार्थी स तत्पतिपित्सावान् दृष्टो लोके, मोक्षार्थी च कश्चिद्भव्यस्तस्मान्मोक्षप्रतिपित्सावानेव युक्तो न पुनर्मोक्षमार्गपतिपित्सावान्, अप्रतिज्ञाते मोक्षे तन्मार्गस्य पतिपित्साऽयोग्यतोपपत्तेरिति मोक्षसूत्रप्रवर्तन युक्त तद्विषयस्य बुभुत्सितत्वान्न पुनरादाव वन्मार्गसूत्रप्रवर्तनमित्ययं मन्यते । शाकारकी ओरसे कही गयी आक्षेपक वार्तिकका भाष्य यों है कि संसारमै जो जीव जिस पदार्थ के साथ अमिलाषा रखता है, वह उसके जानने की इच्छावाला देखा गया है । कोई निकट भव्यजीव मोक्षका अभिलाषी है । उस कारणसे मोक्षके जाननेकी इच्छावाला होना ही युक्त है। परंतु मोक्षमार्गके जानने की इच्छा रखनेवाला होना तो उचित नहीं है। मोक्षके सर्वथा न जानचुकनेपर उसके मार्गके जाननेकी हच्छाकी योग्यता ही नहीं बन सकती है । इस कारण सर्वज्ञको मूल मानकर धाराप्रवाहसे मोक्षके प्रतिपादक सूत्रका प्रवर्तन होना युक्त है। क्योंकि उस सूत्रसे मोक्षरूपी विषयका जानना अभीष्ट हो रहा है । परन्तु फिर आदिमें ही उस मोक्षके मार्गको समझानेवाले सूत्रका प्रवलित रहना नहीं हो सकता है। इस प्रकार यह शंकाकार मान रहा है । अब प्राचार्य समाधान करते हैं कि
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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