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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३९५ देनेपर निपट अचानी गंवारका अथवा चांदीको संग समझनेवाले विपर्यय ज्ञानीका अज्ञान और विपर्ययज्ञान भी अव्यवहित उत्तर कालमें निवृत्त हो जाता है । संशय, विपर्यय और अज्ञान इन तीनोंमेसे किसी एकका भी निराकरण न होनेपर तत्वोंकी प्रतिपत्तिको यथार्थपना सिद्ध नहीं है । अकेले विपर्ययज्ञानका या औदयिक अज्ञानभावके होनेपर उन अकेलों का भी निराकरण हो जावेगा। तब भी तत्त्वोंका निर्णय ठीक ठीक माना गया है । तत्त्वज्ञानसे वर्तमानके सर्व ही कुज्ञानोंका नाश हो जाता है, चाहे एक हो या तीनों हो । तथा जिस प्रतिपादन करने योग्य शिष्यके संशय विद्यमान नहीं है, उसके प्रति संशय दूर करनेके लिये कहा गया तत्त्वोंका निरूपण जैसे व्यर्थ है, उस ही प्रकार जिस प्रतिपाद्यके अज्ञान और विपरीतज्ञान विद्यमान नहीं हैं, उसके लिये भी अज्ञान और विपर्ययके निरासार्थ नत्यनिरूपण करना निरर्थक है । और यदि आपका जैसे यह विचार है कि किसी तत्वप्रतिपत्तिने वर्तमान संशयका नाश न भी किया हो किंतु उसने भविष्य कालमें होने वाले संशयोंका नाश अवश्य किया है, वैसे ही हम भी कह सकते हैं कि वर्तमान कालमें होने वाले अज्ञान और विपर्ययका नाश भले ही किसी निर्णयने न किया हो, किंतु भविष्य कालमें अज्ञान और विपर्यय न उत्पन्न हो सके, इसके लिये मी तत्त्वोंकी प्रतिपत्ति करना सफल है । सर्वथा नवीन माने गये किसी क्षेत्र, जिनालय, नदी, पर्वत, समुद्र या विद्वान्के देखनेपर मूत या वर्तमानके संशय और विपर्ययका निवारण नहीं होता है। हां ! वर्तमानके अज्ञानका नाश अवश्य हो जाता है। और भविष्यके संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और अज्ञानका निराकरण होजाता है । इस प्रकार शिष्यको तत्वोंके समझनेकी अभिलाषा होनेपर तीनों ही प्रकारके शिष्य वक्ताके द्वारा समझाने योग्य है। चाहे घे तत्वों में संशय करनेवाले हों या विपर्यय ज्ञानी हों और भले ही वे कोरे अब्युत्पन्न मूर्ख अज्ञानी हो। योग्य प्रतिपादक गुरु तीनोंको समानरूपसे तत्वों का निर्णय करा देवेगा। प्रयोजनशक्यप्राप्तिसंशयव्युदासतद्वचनवान् प्रतिपाद्य इत्यप्यनेनापास्तम्, तत्प्रतिपि. त्साविरहे तस्य प्रतिपाद्यत्वविरोधात् । सत्यां तु प्रतिषित्सायां प्रयोजनाद्यभावेऽपि यथायोग्य प्रतिपाद्यत्वप्रसिद्धेस्तद्वानेव प्रतिपाद्यते । इति युक्तं परापरगुरूणामर्थतो ग्रन्थतो वा शास्त्रे प्रथमसूत्रप्रवर्तनम्, तद्विपयस्य श्रेयोमार्गस्य परापरप्रतिपाद्यौः प्रतिपित्सितत्वात् । पहिले शंकाकारने यह कहा था कि प्रयोजनवान् और प्रयोजनको प्रतिपादन करनेवाला, तथा तत्वोंको प्राप्त कर सकनेवाला और इस प्रमेयको बोलनेवाला; एवं संशयको दूर करनेवाला और संशय दूर करनेको कइनेवाला ही मजन पलिपाद्य होता है, इन तीन युगलोंकी भी शिष्य बनने आवश्यकता है । ग्रन्थकार कह रहे हैं कि यह भी शंकाकारका कहना पूर्वोक्त इसी कवनसे खण्डित हो जाता है । क्योंकि तत्त्वोंको जानने की इच्छाके बिना उक्त तीनों युगलोंके होने पर भी उस शिष्यको प्रतिपाद्यपनेका विरोध है और समझनेकी इच्छा होनेपर तो प्रयोजन आदि तीन युगलों के न होनेपर भी योग्यताके अनुसार प्रतिपाद्यपना जगत प्रसिद्ध हो रहा है । अत:
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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