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________________ तत्त्वार्षचिन्तामणिः ३९७ सन्न प्रायः परिक्षीणकल्मषस्यास्य धीमतः। स्वात्मोपलब्धिरूपेऽस्मिन् मोक्षे सम्प्रतिपत्तितः ॥ २५० ॥ वह शंकाकारका कहना ठीक नहीं है । कारण कि जिस बुद्धिमान् शिष्यके बहुलसाकरके कोका भार कुछ नष्ट हो गया है, इस बुद्धिमान् शिष्यको निज शुद्ध स्वात्माकी उपलब्धि होनारूप इस मोक्षम भले प्रकार चमि हो रही है, भावार्थ-आत्माके स्वरूपकी प्राप्ति हो जाना रूप मोक्षका सामान्यपनेसे इन सब पर अपर शिष्योंको ज्ञान है । अत: मोक्षकी जिज्ञासा नहीं हुयी किंतु मोक्षमार्गको समझनेकी ही शिष्योंको अमिलाषा है। न हि यत्र यस्य सम्प्रतिपत्तिस्तत्र तस्य प्रतिपित्सानवस्यानुषंगात् सम्मतिपत्तिय मोशे स्वात्मोपलब्धिरूपे प्रकृतस्य प्रतिपाद्यस्य मायशः परिक्षीणकल्मषत्वाव, साविशयमशत्वाच्च। ततो न तदथिनोपि तत्र प्रतिपित्सा तदर्थत्वमात्रस्य तत्मातपित्सया व्यायसिद्धेः सति विवादेऽधित्वस्य प्रतिपित्साया व्यापकत्वमिति चेन्न, तस्यासिद्धस्वात् न हि मोशेऽधिकृतस्य पतिपत्तुर्विवादोऽस्ति । जिस विषय जिसको मले प्रकार ज्ञप्ति हो रही है, उस विषयमे उसको जाननेकी इच्छा नहीं होती है । यदि जाने गये विषयमें भी जिज्ञासाएं होने लगे तो ज्ञात हो चुके विषयमे फिर जिज्ञासा हो जावेगी एवं चर्वितचर्वण या पिष्टपेषणके समान अनवस्थाका प्रसंग होगा। प्रकरणमें पहे हुए समी वादी, पतिवादी, और निकट भव्य इन शिष्यों को स्वास्माकी परिपाप्ति हो जाना स्वरूप मोक्षमै सामान्यपनेसे प्रायः करके इप्ति हो रही है। क्योंकि उनके ज्ञानावरण कमौके कुछ सर्वधाप्ती स्फड़कोंका और अज्ञान, व्यामोह, करनेवाले पापोंका कतिपय अंघोंसे नाश हो गया है। तथा वे निकटमव्य चमत्कारसहित बुद्धिसे युक्त भी है । उस कारण उस मोक्षके अमिसपी भी जीवकी उस मोक्षके जानने में इच्छा नहीं हो पाती है । किसी पदार्थके प्राप्त करनेकी अर्थिता मानसे उसके ही जाननेकी अभिलाषा होनेकी व्याप्ति सिद्ध नहीं है। जैसे कि मोदकको पाप्त करना है, किंतु घृत, चना आदिके जाननेकी अभिलाषा होती है । तीन मायाचारीको धन प्राप्त करना है और पहिलेसे अन्य अन्य पदार्थोंकी अभिलाषायें करता है । अतः जिसको प्राप्त करना है, उसीकी अभिलाषा होये यह व्याप्ति निगड जाती है। . यदि शंकाकार यों कहे कि प्राप्तव्य अर्थके विवाद होनेपर उसके अर्थीपनका प्रतिपिसासे व्यापकपना अवश्य है । भाचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कह सकते हो, क्योंकि यह व्याप्ति तो ठीक है । किंतु प्रकरणमें विवाद होनेपर वह विशेषण सिद्ध (परित ) नहीं हो पाता है। क्योंकि अधिकार या प्रकरणमै प्राप्त समझनेवाले प्रतिपायोंको मोक्षके स्वरूप विवाद नहीं है, सर्व ही मोक्षको स्वीकार करते हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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