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तस्वार्थचिन्तामणिः
नाना प्रतिवादिकल्पनाभेदादस्त्येवेति चेत्
सांस्य, नैयायिक, मीनास, पंदत), बौद्ध आदि अनेक प्रतिवादियोंकी मोक्षके लक्षण नाना कल्पनाएं हैं, अतः भिन्न भिन्न कल्पनायें होनेसे मोक्षके स्वरूपमें भी विवाद है ही। फिर पहिली व्याप्तिके अनुसार मोक्षको क्यों नहीं पूंछा जा रहा है ! यदि शंकाकार ऐसा कहेंगे तो हम जैन कहते हैं कि:
प्रवादिकल्पनाभेदाद्विवादो योपि सम्भवी ।
स पुंरूपे तदावारपदार्थे वा न निवृतौ ॥ २५१ ॥
अनेक प्रवादिओंकी कल्पनाओंके मेदसे को भी मोमोमें विवाद सम्भव हो रहा है, वह आत्माके स्वाभाविक स्वरूप हैं अथवा मोक्षके आवरण करनेवाले कर्म, अविद्या, मिथ्याज्ञान आदि पदार्थों में विवाद है, किंतु आत्माकी मोक्ष होनेमें कोई विवाद नहीं है।
स्वरूपोपपलब्धिनिवृत्तिरिति सामन्यतो निवृत्ती सर्वप्रवादिना विवादोऽसिद्ध एव, यस्य तु स्वरूपस्योपलब्धिस्तत्र विशेषतो विवादस्तदावरणे वा फर्मणि कल्पनाभेदाद, तपाहि. प्रभास्वरमिदं प्रकृत्या चितं निरन्वयक्षणिकम्, अविद्यातृष्णे सत्प्रतिवन्धिके, तद. भावाभिराम्नपचित्तोत्पत्तिर्मुक्तिरिति केषाञ्चित्कल्पना ।
आत्माके वास्तविक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति हो जाना ही मोक्ष है । इस प्रकार सामान्यरूपसे मोक्ष विषयमें सम्पूर्ण मीमांसक, नैयायिक, बौद्ध आदि प्रवादियोंका विवाद करना असिद्ध ही है। हां, तो मोझमें आत्माके जिस स्वरूपकी प्रासि होती है, उसमें विशेषरूसे विवाद है अथवा उस आत्माके स्वरूपको रोकनेवाले कमोमें अनेक कल्पनाओंके भेदसे विवाद पड रहा है, इसीको पसिद्ध कर दिखलाते हैं -सुनिये ।।
यह विज्ञानस्वरूप आत्मा या चित, स्वभावसे हो अतीव प्रकाशमान है और अन्वयरहित होकर क्षण क्षणमें नष्ट होता रहता है अर्थात् पहिले समयका चित्त सर्वथा नष्ट हो जाता है और दूसरे क्षणमै सर्वथा नवीन दूसरा चित्त उत्पन्न होजाता है । स्वभावसे प्रकाशमान उस चित्तके प्रति. बन्ध करनेवाले अविद्या और तृष्णा हैं । अनित्य, असुख और अनात्मक पदार्थों में नित्य, सुख, भौर आस्मीयपना समझनेको अविद्या कहते हैं तथा सांसारिक आकांक्षाओं को तृष्णा कहते हैं । संसारी जीवोंके विकल्प बुद्धियोंके द्वारा ये दोनों दोष लग रहे हैं । अतः पूर्वकी मिथ्या वासनाओं तथा खोटे संस्कारोंके वश उत्सर कालमें भी आलब सहित चित्त उत्पन्न होते रहते हैं । किंतु इन दोनों आवरणोंका जब योगबलसे नाश हो जाता है, तब उससे आसव रहित शुद्ध प्रकाशमान क्षणिक विवको उसति होते रहने को मोक्ष कहते हैं । इस प्रकार किन्हीं सौत्रांतिक बौद्धोंकी कल्पना है।