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________________ तत्त्वार्थीचन्तामणिः सर्वथा निःखभावमेवेदं चितम् तस्य धर्मिधर्मपरिकल्पना प्रतिबन्धिका, तदपक्षयारसकलनैरात्म्यं प्रदीपनिर्वाणवत्स्वान्तनिर्वाणमित्यन्येषाम् । ३९९ यह शुद्ध विज्ञानरूप चित्त विचारा प्राह्य, ग्राहक, धर्मधर्मी आदि सर्वस्वभावोंसे सर्वथा रहित है। किन्तु संसारी जन धर्म, धर्मी, कार्य, कारण, मेरा, तेरा आदि कल्पनाएं कर लेते हैं । ये कल्पनाएं ही उस निःस्वभाव चितकी प्राप्तिमें रोक लगा रही हैं । जब उन कल्पनाओंका तत्त्वज्ञानके द्वारा ध्वंस होजाता है, तब उससे सम्पूर्ण स्वभावोंका निषेधरूप अपने कल्पित धर्मोका दूर हो जाना ही मोक्ष हैं। जैसे कि दीपककी को कहीं दिशा विदिशा में नहीं चली जाती है, केवल स्नेह (तैल) के क्षयसे वहीं शान्त होजाती है, वैसे ही मुक्त अवस्था भी नहीं कुछ रूप पदार्थ है । यहां निज आलाका अंत होजाता है । इस प्रकार दूसरे वैभाषिक बौद्ध मान रहे हैं। सकलागम रहितं परमात्मनो रूपमद्वयस् तत्प्रतिबन्धिकानाद्यविद्या, वद्विलयास्प्रतिभासमात्र स्थितिर्मुक्तिरिति परेषाम् । सम्पूर्ण आगमोंसे न जाना जावे अर्थात् शब्दोंकी योजनाओंसे रहित हो रहा परमब्रझका अद्वैत ही स्वरूप है । उस ब्रह्माद्वैतका प्रतिबंध करनेवाली अनादि कालसे संसारी जीवोंके अविधा लग रही है | उस अविद्या के नाशसे चैतन्यरूप प्रतिभास सामान्य में स्थित हो जाना अर्थात् अकेले परमा लीन होजाना ही मोक्ष है । इस प्रकार अन्य वेदान्तवादियोंका सिद्धांत है । चैतन्यं पुरुषस्य स्त्रं रूपं तस्मतिपक्षः प्रकृतिसंसर्गस्वदपायात् स्वरूपेऽवस्थानं निःश्रेयसमित्यपरेषाम् । आत्माका वास्तविक अपना स्वरूप चैतन्य है। संसार अवस्थामै उसकी शत्रुता करनेवाला सत्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृति के साथ आत्माका संबंध हो जाना है । तत्त्वज्ञान से व्यभिचारिणी स्त्रीके समान प्रकृतिका मायावित्व जाननेपर प्रकृति अपने भोग सम्पादनरूप कार्यको पुरुषके प्रति नहीं करती है । तब उस प्रकृतिके संसर्गका नाश हो जानेसे आत्माका चैतन्य, दृष्टा, उदासीन, रूपमें स्थित हो जाना ही मोक्ष है, इस प्रकार अन्य सांख्यों का मत है । L सर्वविशेषगुणरहितमचेतनमात्मनः स्वरूपम्, तद्विपरीतो बुद्धयादिविशेषगुणसम्बन्ध स्वत्यतिबंधक स्तत्पक्षयादाकाशवदचेतनावस्थितिः परा मुक्तिरितीतरेषाम् । आमा बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयक्ष, धर्म, अधर्म, भावना, संख्या, परिणाम, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, ये चौदह गुण रहते हैं। इनमें से पहिलेके नौ विशेष गुण हैं । अर्थात् केवल आत्मद्रव्यमें ही पाये जाते हैं । इन आत्मा के सम्पूर्ण विशेषगुणोंसे रहित अचेतन हो जाना
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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