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________________ तस्त्वार्यचिन्तामणिः समान सामान्य पदार्थ भी वस्तु दीखता है अर्थात् वस्तु भेदाभेदात्मक है । एक आत्मद्रव्य क्रमभावी और सहभावी पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है । आत्मा अपने गुण और पर्यायोंको छोड़ता नहीं है तथा अन्य द्रव्यों गुण पर्यायों को लेशमात्र भी छूता नहीं है। स्थापक कोई उपाय नहीं है । अवस्तुभूत वासनाओंसे कोई कार्य नहीं पनेको बौद्ध सिद्ध नहीं कर सकते हैं। इस कारण उपयोग स्वरूप आत्मद्रव्य के ही मोक्षमार्गको जानने की इच्छा होना सम्भव है । चेतना के समवाय और ज्ञानयोगसे ज्ञानवानूपनेकी व्यवस्था होने लगे तो आकाश, षट आदि पदार्थ भी ज्ञानवान् हो जायेंगे, कोई रोकनेवाला नहीं है । प्रामाणिक प्रतीतियों से आत्माको ही चेतनपना सिद्ध है। आत्मायें रहनेवाला ज्ञान अपनेको स्वयं जानलेता है । उसको जानने के लिये दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। इस बातको बहुत युक्तियों से आचार्य महाराजने पुष्ट किया है । I ४१९ बौद्धोंके पास इसका व्यव होसकता है। एकसंतान प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और ममिति ये चार स्वतंत्र तत्त्व नहीं हैं। प्रमाता मी प्रमेय होजाता है और प्रमाण भी प्रमेय तथा प्रमितिरूप है । अपनी आस्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ज्ञान होजाता है । ज्ञान और आत्मा सभी प्रकारोंसे परोक्ष यही है। मीमांसकोको धर्मके प्रत्यक्ष होजाने पर उससे अभिन्न धर्मीका भी प्रत्यक्ष होना अवश्य स्वीकार करना पडेगा । प्रमाण ज्ञान और अज्ञाननिवृत्तिरूप फलज्ञान ये दोनों अभिन्न हैं। हां ! प्रमाणज्ञानसे दान, उपादान, बुद्धिरूप फलज्ञान भिन्न है । द्रव्यदृष्टिसे यहां भी अभेद माना जाता । अतः मीमांकोंका परोक्षरूप से माना गया करणज्ञान व्यर्थ पड़ता है। ज्ञानके परोक्ष होनेपर अर्थका प्रत्यक्ष होना नहीं बन सकेगा, सर्व ही मिथ्या या समीचीन ज्ञान अपने स्वरूपकी प्रमिति करनेमे प्रत्यक्ष . प्रमाणरूप हैं । आत्मा उपयोगवान् नहीं, किंतु उपयोगस्वरूप ही है । इस अपेक्षा से प्रत्यक्ष है तथा प्रतिक्षण नवीन नवीन परिणाम, असंख्यात प्रदेशीपना, आदि धर्मोकर के छद्मस्थों के ज्ञेय नहीं हैं । अतः परोक्ष भी है । 1 आत्मा सांख्योंके मतानुसार, भकर्ता, अज्ञानी, सुखरहित नहीं है । गाढनिद्रामें सोती हुयी मा भी ज्ञान विद्यमान है । मत्त मूर्छित अवस्थाओं में भी आत्माके ज्ञान है । ज्ञानके अनित्य होनेसे उससे अभिन्न आत्मद्रव्य भी अनित्य हो जायेगा। इस प्रकारका भय सांख्योंको नहीं करना चाहिए | क्योंकि अनित्य भोग, उपभोगों के समान ज्ञानसे " अभिन्न होता हुआ आला मी नित्यानि - त्यात्मक है । उत्पाद व्यय और प्रौव्यरूप परिणाम हुए बिना पदार्थों का सत्व ही नहीं रह पाता है । यदि अन्य बना रहे तो नाश होना बहुत अच्छा गुण (स्वभाव) है । इस प्रकार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप परिणामोंको धारण करनेवाले किसी जीवमे संसार के कारण मोह आदि कर्मों के नाश हो जानेपर संसारका स हो जाता है। जिसका संसार नष्ट हुआ है, उसने पूर्व समय
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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