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तस्त्वार्यचिन्तामणिः
समान सामान्य पदार्थ भी वस्तु दीखता है अर्थात् वस्तु भेदाभेदात्मक है । एक आत्मद्रव्य क्रमभावी और सहभावी पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है । आत्मा अपने गुण और पर्यायोंको छोड़ता नहीं है तथा अन्य द्रव्यों गुण पर्यायों को लेशमात्र भी छूता नहीं है। स्थापक कोई उपाय नहीं है । अवस्तुभूत वासनाओंसे कोई कार्य नहीं पनेको बौद्ध सिद्ध नहीं कर सकते हैं। इस कारण उपयोग स्वरूप आत्मद्रव्य के ही मोक्षमार्गको जानने की इच्छा होना सम्भव है । चेतना के समवाय और ज्ञानयोगसे ज्ञानवानूपनेकी व्यवस्था होने लगे तो आकाश, षट आदि पदार्थ भी ज्ञानवान् हो जायेंगे, कोई रोकनेवाला नहीं है । प्रामाणिक प्रतीतियों से आत्माको ही चेतनपना सिद्ध है। आत्मायें रहनेवाला ज्ञान अपनेको स्वयं जानलेता है । उसको जानने के लिये दूसरे ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। इस बातको बहुत युक्तियों से आचार्य महाराजने पुष्ट किया है ।
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बौद्धोंके पास इसका व्यव होसकता है। एकसंतान
प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और ममिति ये चार स्वतंत्र तत्त्व नहीं हैं। प्रमाता मी प्रमेय होजाता है और प्रमाण भी प्रमेय तथा प्रमितिरूप है । अपनी आस्माका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे ज्ञान होजाता है ।
ज्ञान और आत्मा सभी प्रकारोंसे परोक्ष यही है। मीमांसकोको धर्मके प्रत्यक्ष होजाने पर उससे अभिन्न धर्मीका भी प्रत्यक्ष होना अवश्य स्वीकार करना पडेगा ।
प्रमाण ज्ञान और अज्ञाननिवृत्तिरूप फलज्ञान ये दोनों अभिन्न हैं। हां ! प्रमाणज्ञानसे दान, उपादान, बुद्धिरूप फलज्ञान भिन्न है । द्रव्यदृष्टिसे यहां भी अभेद माना जाता । अतः मीमांकोंका परोक्षरूप से माना गया करणज्ञान व्यर्थ पड़ता है। ज्ञानके परोक्ष होनेपर अर्थका प्रत्यक्ष होना नहीं बन सकेगा, सर्व ही मिथ्या या समीचीन ज्ञान अपने स्वरूपकी प्रमिति करनेमे प्रत्यक्ष . प्रमाणरूप हैं । आत्मा उपयोगवान् नहीं, किंतु उपयोगस्वरूप ही है । इस अपेक्षा से प्रत्यक्ष है तथा प्रतिक्षण नवीन नवीन परिणाम, असंख्यात प्रदेशीपना, आदि धर्मोकर के छद्मस्थों के ज्ञेय नहीं हैं । अतः परोक्ष भी है ।
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आत्मा सांख्योंके मतानुसार, भकर्ता, अज्ञानी, सुखरहित नहीं है । गाढनिद्रामें सोती हुयी मा भी ज्ञान विद्यमान है । मत्त मूर्छित अवस्थाओं में भी आत्माके ज्ञान है । ज्ञानके अनित्य होनेसे उससे अभिन्न आत्मद्रव्य भी अनित्य हो जायेगा। इस प्रकारका भय सांख्योंको नहीं करना चाहिए | क्योंकि अनित्य भोग, उपभोगों के समान ज्ञानसे " अभिन्न होता हुआ आला मी नित्यानि - त्यात्मक है । उत्पाद व्यय और प्रौव्यरूप परिणाम हुए बिना पदार्थों का सत्व ही नहीं रह पाता है । यदि अन्य बना रहे तो नाश होना बहुत अच्छा गुण (स्वभाव) है । इस प्रकार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगरूप परिणामोंको धारण करनेवाले किसी जीवमे संसार के कारण मोह आदि कर्मों के नाश हो जानेपर संसारका स हो जाता है। जिसका संसार नष्ट हुआ है, उसने पूर्व समय