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तत्त्वार्थचिन्तामणिः... :
किंतु केवलज्ञानसे एक क्षणमें ही त्रिकाल त्रिलोकके पदार्थोंको जाननेवाला 'सर्वज्ञ है। सर्वज्ञताका कारण घातिया फोका क्षय हो जाना है, मूलसहित कर्मोंका भय हो जानेपर अर्हन्त देव स्वभावसे ही यावत् पदार्थोंको जान लेते हैं, प्रयत्न करनेकी आवश्यकता नहीं है । अत्यल्प कायों में प्रयत्न उपयोगी होता है। किंत आनंतानंत कार्य प्रयत्नके विना स्वभावोंसे ही हो जाते हैं । विना इच्छा और पयल के दर्पण प्रतिबिम्ब ले लेता है।
संवर और निर्जरासे घातिया काँका किसी साधुके क्षय हो जाता है। इस कारण मोक्षमार्गका नेता विश्वतत्त्वोंका ज्ञाता और कमाका क्षय करनेवाला आत्मा ही उन गुणोंकी प्राप्तिके अभिलाषुक जीवोंके द्वारा स्तुत्य है । वे जिनेंद्रदेव तीर्थकर प्रकृतिके उदब हो जानेपर मोक्षमार्गका उपदेश देते हैं, उपदेशकी धारा अनादि कालसे चली आ रही है । इस प्रकरणपर अकेले ज्ञानसे ही मोक्षको माननेवाले नैयायिक, सांख्य आदिका खण्डन कर रत्नत्रयसे ही मुक्तिकी व्यवस्था मानी है । ज्ञानके समायसंबंधसे आत्मा ज्ञ नहीं हो सकता है । भिन्न पड़ा हुआ समवायसंघ भी किसी गुणी में किसी विशेष गुणको संबंधित कराने का नियामक नहीं हो सकता है। समवाय संबंध तादात्य सर्वबसे भिन्न होकर सिद्ध नहीं होने पाधा है । नैयायिकोंके ईश्वरके समान बौद्धोंसे माना गया बुद्धदेव मी मुक्तिको प्राप्त नहीं कर सकता है और न मोक्षमार्गका उपदेश देसकता है। निरन्वय क्षणिक अवस्थामै संतान भी नहीं बन पाती है । अन्श्य सहित परिणाम माननेपर ही पदार्थोंमें अर्थकिया बन सकती है । वचन बोलने विवक्षा कारण नहीं है । तीर्थकर देव विवक्षाके विना दिव्य ध्वनि द्वारा उपदेश देते हैं। चित्राद्वैत मतमे भी मोक्ष और मोक्षका उपदेश नहीं बनता है। विज्ञानाद्वैत और मंझद्वितकी भी सिद्धि नहीं होसकती है । इस कारण पातिया कोसे रहित हुआ आत्मा ही उपदेशक है और ज्ञानसे तादात्म्य रखनेवाला विनीत आत्मा उपदेश सुननेका पात्र है। चार्वाकोंके द्वारा मानागया पृथ्वी, अप, तेज, वायुसे उत्पन्न हुआ आत्मा द्रव्य नहीं है । आत्मा पुद्गलका बना हुआ होता तो बहिरंग इंद्रियोंसे जाना जाता, किंतु आमाका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होरहा है । तथा आत्माका लक्षण न्यारा है और पृथ्वी आदिका लक्षण भिन्न है : पृथ्वी आदिक तत्त्व आत्माको प्रगट करनेवाले भी सिद्ध नहीं हैं । विना उपादान कारणके माने कारकपक्ष और ज्ञापक पक्ष नहीं चलते हैं। शब्द बिजली आदिके भी उपादान कारण है, जो कि स्थूल इंद्रियोंसे नहीं दीखते हैं। पिठी, महुआ आदिकसे मद शक्तिके समान शरीर, इंद्रिय आदिकसे चैतन्य शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती है । शरीरका गुण बुद्धि नहीं है। अन्यथा मृत देहमें भी बुद्धि, सुख, दुःख आदिकका प्रसंग होगा। मैं सुखी हूं, मैं गुणी हूं, मैं फर्ता हूं इत्यादिक प्रतीतियोंसे आत्मा स्वतंत्र तत्त्व सिद्ध होरहा है। जो कि अनादि कालसे अनंत कातक स्थिर रहनेवाला है। प्रध्यार्थिक नयसे आत्मा नित्य है
और पर्यायार्थिक नयसे अनित्य है । इस कारण आत्मा निस्यानित्यात्मक है। चार्वाकका माना गया पक्ष अच्छा नहीं है। नौद्धोका आत्माको क्षणिक विज्ञानरूप मानना भी ठीक नहीं है। विशेषके