SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वाचिन्तामणिः यहां तककी रचनाका अनुकम संक्षेपसे इस प्रकारसे हैं कि सूत्र अवतारकी आदिमें श्री विधानंद स्वामीने श्री लोकवार्तिक मंथका प्रारम्भ कर मंगलाचरण पूर्वक परमपर गुरुओका ध्यान करना आवश्यक बतलाया है। इस पर अच्छा खण्डन, मण्डन, करके अथकी सिद्धिके कारण गुरुओंका ध्यान करते हुए सूत्र, अध्याप आदिका लक्षण किया है । तथा श्लोकवार्तिक ग्रंथको आम्नायके अनुसार आया हुआ तलाकर साक्षात्कल बानका पाति और परम्परा फळ कोके नाश करने में उपयोगी कहा है। अच्छे शास्त्र तो हेतुवाद और आगमवादसे संयुक्त होते हैं । यह श्लोकवार्तिक ग्रंथ हेतुवादसे पूर्ण है। तर्क वितर्क करनेवाली बुद्धिको धारण करनेवाले विद्वान् इस ग्रंथसे तत्वोंको प्राप्त कर लेते हैं। आज्ञाप्रधानी, प्रतिभाशाली, श्रद्धालुओंको जानने योग्य विषय मी इस ग्रंथमें अधिक मिलेंगे । किंतु भोली बुद्धिवाले शिष्योंका इस इस अंथ प्रवेश होना दुस्साध्य है। वे अन्य उपयोगी ग्रंथोंको पढकर इस ग्रंथके अध्ययन करनेकी योग्यताको पहिले प्राप्त करते। पीछे तर्कशालिनी बुद्धिके हो बानेपर हेतुवाद और आगमवाद रूप इस ग्रंथका अभ्यास करें। अपनी योग्यताका अतिक्रमण कर कार्य करनेमें सफलता प्रास नहीं होती है। श्री विद्यानंद स्वामीने इस ग्रंथकी रचना अतीव प्रकाण्ड विद्वत्ता के साथ की है। अतः बुद्धिशाली शिष्य इस ग्रंथका बहुत विचार के साथ स्वाध्याय करें वे जितना गहरा घुसेगे उतना गम्भीर प्रमेय पावेंगे। ग्रंथके आदिमें प्रयोजनको कहनेवाला मागम और परार्वानुमान रूप वाक्य कहना आवश्यक है। मोक्षमार्गके नेता और कर्मरूपी पर्वतके मेषा तथा विश्वतत्त्वोंके ज्ञाता ऐसे बिनेद्र भगवान के उपदेशक होनेपर मुमुक्षु भव्यों के प्रति यह सूत्र अर्थ रूपसे कहा गया है। उसी आम्नायसे आये हुए सूत्रका श्री उमास्वामी महाराजने प्रतिपादन किया है । यह सूत्ररूपी शब्द तो घारापदाइसे प्रमेयकी अपेक्षा अनादि है, किंतु पर्यायदृष्टिसे सादि है । शब्द पुद्गलकी पर्याय है, अन्यापक है, मूर्त है ऐसे पौगलिक सूत्रोंका गूंथना गणघर देवने द्वादशाङ्गमे किया है । विनीत शिष्यों के विना भगवान्की दिव्यध्वनि भी नहीं लिरती है। अत्युपयोगी वस्तु व्यर्थ नहीं जाती, तैसे ही प्रतिशवकोंकी इच्छा होनेपर सूत्र या अन्य आर्य ग्रंथ प्रवर्तित होते हैं। हिंसा आदि पापोंका निरूपण करनेवाले ग्रंथ प्रामाणिक मी नहीं है । अतः ज्ञानी वक्ता और श्रोताओंके होनेपर. समीचीन शास्त्रोंका निर्माण होता है । पहिले सूत्रको आगम और अनुमानरूप सिद्ध करते हुए अपौरुषेय वेदका खण्डन किया है। वीतराग, सर्वज्ञ, भादि हितोपदेशकका निर्णय कर लेनेपर उसके वाक्योंकी अक्षुण्णरूपसे प्रमाणता आजाती है। मीमांसकोंने सर्वशको नहीं माना है, उनके लिये सर्व-सिद्धि सूक्ष्म आदिक अर्थोके उपदेश करनेकी अपेक्षा की गई है, जिनको हम श्रुतज्ञानसे जानते हैं, उन पदार्थोंका प्रत्यक्षकों कोई आत्मा अवश्य है। प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणोंसे सर्व पदायाँके जाननेवाळेको सर्वज्ञ नहीं कहते है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy