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तत्वार्थचिन्तामणिः
इस प्रकार सम्पूर्ण वादियोंके यहां मोक्षक सामान्य सिद्धि दोजाने पर किसी निकट भव्य मोक्षमामी सज्जन शिष्यके पहिलेसे ही मोक्षमार्गके जाननेकी अभिलाषा हो जाती है। वह जिज्ञासा ही प्रथमसूत्रका प्रवर्तन करारही है । यो पहिले सूत्रका अवतार होना पुष्ट किया गया है।
सर्वस्थाद्वादिनामेव प्रमाणतो भोक्षस्य सिद्धौ तत्राधिकृतस्य साधोरुपयोगस्वभावस्यासन्ननिर्वाणस्य प्रज्ञातिराययतो हितमुपलिप्सोः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य साक्षादसाक्षादाप्रबुद्धाशेषतत्वार्थप्रक्षीणकल्मषपरापरगुरुप्रवाहसभामधितिष्ठतो निर्वाणे विपतिपत्यभावात्त. न्मार्गे विवादात् तत्प्रतिपित्साप्रतिबन्धकविध्वंसात्साधीयसी प्रतिपित्सा, सा च निर्वाणमार्गोपदेशस्य प्रवर्तिका।
सम्पूर्ण स्याद्वादसिद्धांतको माननेवाले या सर्व ही श्रेष्ठ वादियों के मतमें जब अनुमान और आगम प्रमाणसे मोक्ष तत्त्वकी सिद्धि हो चुकी तो उसमें अधिकारको प्राप्त हो रहे साधु पुरुषके मोक्षम विवाद न होने और मोक्षमार्गमें विवाद हो जानेसे मार्गकी जिज्ञासाके प्रतिबंधक कोंके नाश हो जानेके कारण मार्गको ही जाननेकी इच्छाका होना बहुत अच्छा है। क्योंकि उसका मोक्ष विवाद नहीं है । उस मोशके मार्गमें विवाद पड़ा हुआ है । जिस भव्यको जिज्ञासा होनेपर मोक्षमार्गका उपदेश दिया गया है, वह ज्ञानोपयोग स्वभाववाला आत्मा है और उसको निकट भविष्यम मोक्ष होनेवाली है । वह नवीन श्रेष्ठ तर्कणाओंके चमत्कारोंको घारण करनेवाली बुद्धिसे युक्त है, और
आत्महितको प्राप्त करना चाहता है । कल्याणमार्गसे युक्त होनेवाला है तथा केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण तवायोंको जाननेवाले तथा नष्ट हो गये हैं पातिया कर्म जिनके ऐसे उत्कृष्ट गुरु अईन्तोंकी समाम अथवा परोक्ष श्रुतज्ञानसे सम्पूर्ण तत्वार्थीको जानकर अनेक पापोंका क्षय करनेवाले गणधर आदिक अपर गुरुओंकी प्रवाहित सभामें बैठा हुआ है, और ऐसे शिष्यकी वह प्रबल जिज्ञासा मोक्षमार्गके उपदेशका मले प्रकार प्रवर्तन करानेवाली है।
सत्यामेव वस्या प्रतिपाद्यस्य तत्मविपादकस्य यथोक्तस्यादिसूत्रप्रवर्तकत्वोपपत्तेरन्यथा वप्रवर्तनादिति प्रतिपत्तव्यं प्रमाणवलायत्तत्वात् ।
ऐसे पूर्व कहे विशेषणोंसे युक्त हो रहे शिष्यकी उस प्रसिद्ध जिज्ञासाके होनेपर पहिले कहे गये आपके यथा उचित अनेक गुणोंसे युक्त, कर्मरहित, और ज्ञानवान् उसके प्रतिपादक आचार्य महाराजको मादिके सूत्रका प्रवर्तकपना ठीक सिद्ध हो जाता है । अन्यथा यानी दूसरे प्रकारोंसे मोक्षमार्गके प्रतिपादक उस सूत्रका अर्थरूपसे या ग्रंथरूपसे आज तक प्रवर्तन होना घटित नहीं होता है । यह बात विश्वास पूर्वक समझ लेना चाहिये । इस प्रकार प्रमाणोंकी सामर्थ्यके अधीन पूर्ण विचार हो जानेसे पूर्वमें कही हुयी योग्यताके मिल जानेपर अब आदिके सूत्रका अवतार करना न्याय प्राप्ठे हो जाता है। एक बार हृदय खोलकर कहिए " जैन धर्मकी अब "।