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________________ तत्त्वावचिन्तामणिः १९५ रूप बाधाओंका तो कोका फल भोगनेसे सर्वथा नाश होता है। तथा तपस्याके बलसे बिना फल भोगे भी सञ्चित कोका नाश हो सकता है, किन्तु जिन कार्योंका असातारूप फल देना अनिवार्य है उनका फल भोगनेसे ही नाश होगा, चाहे वे तीन कल्याणके धारी तीर्थकरके हों, बारहवें गुणस्थानतक कोई संसारीजीव पूर्ण सुखी नहीं हो पाता है। धूमके अपने कारण माने गये अग्मि या पूर्व पूर्व धूम मादिके अमाव होजानेपर भी नये नये धूम आदि की प्रवृत्ति होना निवृत्त नहीं होता है, यह नहीं कहना । अथवा चाक घूमनेके कारण कुलाल या वेमके निवृत्त हो आनेपर भी चाक घूमना बन्द न होवे, यह नहीं समझ बैठना जिससे कि हमारे हेतुमे व्यभिचार हो सके | मावार्थ-कारणके अभावसे दुःखोंका निवृत्त होना सिद्ध हो जाता है। इसमें कोई दोष नहीं है। अतोऽनुमानतोऽप्यस्ति मोक्षसामान्यसाधनम् । - सार्वज्ञादिविशेषस्तु तत्र पूर्वं प्रसाधितः ॥ २५६ ॥ इस कारण अनुमानसे मी मोक्षसामान्यका साधन हो ही रहा है। मुक्तावस्थामें सर्वज्ञता, अनंतमुख, आठ कोका क्षय, आदि विशेषताओंको तो हम वहां पहिले प्रकरणों में सिद्ध करचुके हैं ! यहां कइना पुनरुक्त पड़ेगा। न हि निरवद्यादनुमानात साध्यसिद्धौ संदेहः सम्भवति, निरखद्य च मोक्षसामान्येऽ नुमानं निखद्यहेतुसमुत्पत्वादित्यतीनुमानात्तस्य सिद्धिरस्त्येव न केवलमागमात् , सार्वत्वादिमोक्षविशेषसाधनं तु प्रागेवोक्तमिति नेहोच्यते । __असिद्ध, विरुद्ध, व्यभिचार आदि दोषोंसे रहिस होरहे अनुमानसे साध्यकी सिद्धि होजाने, पर ( पुनः ) साध्यमें किसी मी प्रकारका सन्देह नहीं सम्भवता है। यहां प्रकसमें मोक्षसामान्यके सिद्ध करनेमें ऊपर दिया गया अनुमान निर्दोष है । क्योंकि वह अनुमान निर्दोष हेतुमोसे अच्छा उत्पन्न हुआ है । इस कारण इस अनुमानसे उस मोक्षकी सिद्धि हो ही जाती है। केवल आगम प्रमाणसे ही मोक्षकी सिद्धि नहीं है, किंतु अनुमानसे भी मोक्ष सिद्ध है। हां ! मोक्ष जीव सर्वज्ञ हो जाता है। द्रव्यकर्म, नोकर्म और भावकोंसे रहित होजाता है इत्यादि मोक्षकी विशेषताओकी सिद्धिको तो पहिले ही कह चुके हैं। इस कारण यहां नहीं कही जाती है। तसिद्धेः प्रकृतोपयोगित्वमुपदर्शयति इस मोक्षको अनुमान और आगमसे सिद्धि करने का इस प्रकरणमें क्या उपयोग हुआ ! इस बातको आचार्य स्वयं संगतिपूर्वक दिखलाते हैं एवं साधीयसी साधोः प्रागेवासन्ननिवृतेः । निर्वाणोपायजिज्ञासा तत्सूत्रस्य प्रवर्तिका ॥ २५७ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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