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________________ सत्यार्थचिन्तामणिः तांत्रिक आदि द्वारा रोग दूर होनेसे उत्पन्न होनेवाले कल्याणके मार्गको जान रहा है । अतः ज्ञात ( अनुमित ) किया जाता है कि रोगीको कल्याणमार्गके जानने की इच्छा अवश्य है । विवादमें प्राप्त हुआ कोई उपयोग स्वरूप मध्य आत्मा दूसरोंके द्वारा मोक्षमार्गको जान रहा है । उस कारण वह कल्याणमार्गी वाला है। इस पांच अनुमानके पक्षमै हेतुकी सत्ता असिद्ध है, यह नहीं कहना। क्योंकि अतिशीघ्र कल्याणके साथ युक्त होनेवाले ज्ञान उपयोग स्वरूप विलक्षण आत्माकी प्रमाणोंसे सिद्धि हो चुकी है । यहां उस आत्माको घर्मी बनाया गया है, उसमें हेतु विद्यमान रहता है। हां, उक्त आत्मासे भिन्न प्रकार नैयायिक, कापिलोंके द्वारा माने गये आत्मारूपी धर्माने तो उस हेतुका रहना प्रमाणोंसे बाधित है । यदि उनके माने गये आत्मा साध्य की सिद्धि की जावेगी तो हेतु अवश्य असिद्ध हेत्वाभास हो ही जायेगा। इसको हम भी कहते हैं । ३९१ नहि निरन्वयक्षणिक चिचसन्तानः, प्रधानम् अचेतनात्मा, चैतन्यमात्रात्मा वा परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गः सिद्ध्यति तस्य सर्वथार्थक्रियारहितत्वेनावस्तुत्वसाधनात् । नापि श्रेयसा शश्वदयोक्ष्यमाणस्तस्य गुरुतरमोहाक्रान्तस्यानुपपत्तेः । बौद्ध मानी गयी अन्वयरहित केवल एक क्षणमै रहकर दूसरे क्षणमै विनष्ट होनेवाले चिकी अवस्तु रूप सन्तान, या कापिलों की मानी हुयी सत्त्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृति अथवा वैशेषिक और नैयायिकों से माना गया चेतना से भिन्न स्वयं अचेतन स्वरूप आत्मा और ब्रह्माद्वैतवादियोंसे स्वीकृत केवल चैतन्यरूप आत्मा ये चारों प्रकारके आत्मा तो दूसरे गुरुओसे कल्याणमार्गको जाननेवाले सिद्ध नहीं होते हैं । कारण कि उक्त प्रकारके वे चारों ही आत्माएं सर्व प्रकारसे अर्थक्रियाओंसे रहित हैं। इस कारण उनको वस्तुपना सिद्ध नहीं होता है । इस बातको हम पहिले कह चुके हैं। और जो आत्मा सर्वेदा कक्ष्याणमार्गेसे युक्त होनेवाला ही नहीं है, वह भी दूसरे हितोपदेष्टाओं से मोक्षमार्गको समझ नहीं सकता है। क्योंकि उसके ऊपर बड़े मारी मोहनीय कर्मके उदयोंका आक्रमण हो रहा है। ऐसे दूर भव्य या तीनमोहके प्रति कल्याणमार्गका प्रतिपादन करना प्राकृतिक नियमसे ही नहीं बन सकता है। स्वतः प्रतिपद्यमानश्रेयो मार्गेण योगिना व्यभिचारी हेतुरिति चेत् न, परतो ग्रहणात् । परतः प्रतिपद्यमानप्रत्यवायमार्गेणानैकान्तिक इति चायुक्तम्, तत्र हेतुधर्मस्याभावात् । तत एव न विरुद्ध हेतुः श्रेयो मार्ग टिपित्सावन्तमन्तरेण क्वचिदप्यसम्भवात् । इति प्रमाणसिमेतद्वानेव यथोक्तात्मा प्रतिपाद्यो महात्मनाम्, नावद्वान्ना यथोक्तात्मा वा तत्प्रतिपादने सतामप्रेक्षावच्चप्रसंगात् । " स्वयं अपने आप जान लिया है मोक्षमार्ग जिन्होंने ऐसे प्रत्येक बुद्ध मुनिराज अथवा केवलज्ञानी जिनेंद्र देवले प्रक्कत हेतु व्यभिचारी है, ऐसा तो नहीं कहना चाहिये। क्योंकि हमने बेतुके
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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