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________________ ३९० तस्वार्थचिन्तामणिः तथा संशययुदासवान् प्रतिपायः सकृत्संशयितोभयपक्षस्य प्रतिपादयितुमशक्तेः संशयन्युदासवानपि तद्वचनवान् प्रतिपाद्यते, किमयमनित्या शवः किं वा नित्य इत्युमयोः पक्षयोरन्यतरत्र संशयव्युदासस्यानित्यः शब्दस्तावत्प्रतिपाद्यतामिति वचनमन्तरेणावबोद्धमशक्यत्वादिति केचित् , तान् प्रतीदमभिधीयते ।। और भी अपने संशयको दूर करनेवाला पुरुष ही समझाने योग्य है । जिसने एक समयमें दोनों ही पक्षोंका संशय कर रखा है, उसको छोडता नहीं है, वह समझाया नहीं जा सकता है। ज्ञानको ग्रहण करनेवाला समझाया जाता है । मूर्ख रहनेवाला नहीं। संशयको निवारण करने वाला मी यदि उस संशय दूर करनेको वचनसे बोलेगा, तब तो समझा दिया जावेगा । अन्यथा नहीं । जैसे कि यह शब्द क्या अनित्य है ? अथश क्या नित्य है ? इन दोनों पक्षोमसे किसी एक पक्षमें संशयको दूर करने के लिये पहिले आप शब्दकी अनित्यताको समझा दीजिये | इस प्रकारके वचनके विना आचार्य उसके अभिप्रायको समझ नहीं सकते हैं। यहांतक १ संशय, २ संशयः वचन, ३ प्रयोजन, ४ प्रयोजनवचन, ५ जिज्ञासा, ६ चिज्ञासावचन, ७ शक्यप्राप्ति, ८शक्षप्राप्तिवचन, ९ संशयव्युदास, १० संशयव्युदासवचन । इन दश घाँसे युक्त शिष्य ही गुरुके द्वारा समझाने योग्य है, ऐसा कोई शंकाकार पूर्वपक्ष कह रहे हैं। उनके प्रति आचार्यके द्वारा छोटी बूटी के समान यह उत्तर कहा जाता है-दक्षचित्त होकर सुनिये । तद्वानेव यथोक्तात्मा प्रतिपाद्यो महात्मनाम् । इति युक्तं मुनीन्द्राणामादिसूत्रप्रवर्तनम् ॥ २४८ ॥ यथा उक्त गुणोंवाला, कल्याण मार्गकी जिज्ञासासे युक्त और निकट भविष्यमें कल्याण लगनेवाला उपयोग स्वरूप आत्मा ही गुरुस्वरूप महान् आत्माओंके द्वारा समझाने योग्य है । इस प्रकार मुनियों में परम ऐश्वर्यको घारण करनेवाले गणधरदेव और उमास्वामीका पहिला " सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्रका प्रवर्तन युक्त है। यः परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गः स श्रेयोमार्गपतिपित्सावानेव, यथातुरः सदैग्रादिभ्या प्रतिपयमानव्याधिविनिवृत्तिजश्रेयोमार्गः परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गश्च विवादापनः कश्चिदुपयोगात्मकात्मा भव्य इति । अत्र न धर्मिण्यसिद्धसत्ताको हेतुरात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्योपयोगस्वभावस्य च विशिष्टस्य प्रमाणसिद्धस्य धर्मित्वात्त हेतोः सद्भावात्, तद्विपरीते त्वात्मनि धर्मिणि तस्य प्रमाणाबाधितत्वादसिद्धिरेव । जो शिष्य दूसरेके द्वारा मोक्षमार्गको जान रहा है, वह अवश्य कल्याणमार्गको जाननेकी अमिलापाले सहित ही है । जैसे नीरोग होनेका अभिलाषी क्वेशित रोगी विचारा श्रेष्ठ वैद्य, मंत्रवित्,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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