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________________ तत्त्वार्यचिन्तामणिः वान् होता हुआ भी प्रयोजन सहितपनेसे निश्चय नहीं किया जा सकता है । प्रयोजनका कथन करने से विनयीपन भी व्यक्त होता है, कोरे पेटूके प्रति यदि समीचीन ज्ञान उपदिष्ट किया जावेगा तो ऐसी दशा में बैठके ज्ञानावरण कर्मका च होगा । प्रकृष्ट विद्वान् भी अपने गौरवयुक्त पूज्य ज्ञानको यों ही व्यर्थ फेंकते नहीं फिरेंगे । ३८९ तथा जिज्ञासावान् प्रतिपाद्यः प्रयोजनवतो निश्चितस्यापि ज्ञातुमनिच्छतः प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् तद्वानपि तद्वचनवान् प्रतिपाद्यते खां जिज्ञासां वचनेनानिवेदयतस्तद्वतया निर्णेतुमशक्तेः । और जानने की इच्छावाला शिष्य ही समझाया जाता है। शिष्य प्रयोजनवान् है, ऐसा निश्चित भी हो चुका है, किंतु गुरुजीसे तत्वोंको नहीं जानना चाहता है, वह बेला हितैषी गुरुके द्वारा भी नहीं समझाया जा सकता है । अमृतस्वरूप ज्ञानका व्यर्थ उपयोग करना अनुचित है । तथा उस जानने की इच्छावाला होता हुआ भी उस जानने की इच्छा को विनीत वचनोंसे कहेगा, तब तो गुरु उसको शिक्षण देंगे, किंतु जो अपनी जिज्ञासाको वचनों के द्वारा गुरुजीके सन्मुख निवेवन नहीं कर रहा है, वह जिज्ञासावान्पनेसे निर्णीत भी नहीं किया जा सकता है और उद्दण्ड अभिमानीको उपदेश देने से फल भी क्या निकलेगा ! ऐसे आत्मा मिमानियों में अवधि ज्ञानीका वह उपदेश स्कुरायमाण भी न होगा । शिष्यकी विनययुक्त जिज्ञासामें उसके वचनोंसे ही व्यक्त होनी चाहिए। तभी शिष्य की आत्मा कोमलता, धर्मोपदेश, और मोक्षमार्गपरिणतियां उपजेंगी । तथा जिज्ञासुनिश्चितोऽपि शक्यप्राप्तिमानेव प्रतिपादनायोग्यस्तत्त्वमुपदिष्टं प्राप्तुमशक्नुवतः प्रतिपादने वैयर्थ्यात् स्वां शक्यप्राप्तिं वचनेना कथयतस्तद्वत्तेन प्रत्येतुमशक्तेः शक्यप्राप्तिवचनवानेव प्रतिपाद्यः । अभीतक पूर्वपक्ष ही चल रहा है कि वह शिष्य जिज्ञासु है । यह गुरुने निर्णय मी करलिया है, फिर भी उपदिष्ट पदार्थको प्राप्ति कर सकनेवाला ही प्रतिपादन करने योग्य है । गुरुके द्वारा उपदेश दिये गये तत्त्वको जो प्राप्त नहीं कर सकता है, कन्धा डाले हुए बैलके समान जो कार्य करने में अधीर हो गया है, उसको तत्त्वका प्रतिपादन करना व्यर्थ जावेगा । उग्रवीर्य रसायन साधारण पुरुषको नहीं किंतु उसको झेलने वाले समर्थ पुरुषको ही वह दी जाती है। जो कमर कस कर तत्वप्राप्ति करने के लिये समर्थ भी है किंतु अपनी सामर्थ्यका वचनसे निरूपण नहीं कर रहा है, उसके सन्नद्धपनेको प्रतिशदक नहीं जान सकता है । जो शक्य प्राप्तिमानूपने करके नहीं जाना गया है वह शिक्षण देने योग्य नहीं हैं । अतः बोलनेकी अवज्ञा से भयमीत शिष्यको उपदेश सुनने की योग्यता नहीं है । तथा च उपदिष्ट पदार्थ के प्राप्तिकी सामर्थ्यको वचनोंसे कहनेवाला ही सरपुरुष शिक्षा के योग्य है । गुरुजीको शिष्यका उपकार करना है । स्त्रमुखसे उन वचनोंको कइरहे विद्यार्थीके क्षयोपशम, विनय, ग्राह्यता पात्रता गुग, विकसित होते हैं ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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