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________________ ३८८ तत्वार्षचिन्तामणिः नान्युत्पमो विपर्यस्तो वा तद्विपरीतत्वाद्वालकवदस्युवदा । तथा संशयवचनवान् प्रतिपाय: स्वसंशयं वचनेनाप्रकाशयता संशयितस्यापि ज्ञातुमशक्त। __यहां किसीकी लम्बी चौड़ी शंका है कि अपने प्रतिबंधक पापोंके अच्छी तरह नाश हो जानेसे और काललब्धि आदिको सहायतासे कल्याण मार्गम जाननेकी इच्छा मले ही हो किंतु उस जाननेकी इच्छावाला पुरुष ही तो उपदेष्टाके द्वारा प्रतिपादित किया जाता है । इस प्रकार जैनोंका कहना तो सिद्ध नहीं है । क्योंकि संशय, प्रयोचन, जाननेकी इच्छा, शक्यकी प्राप्ति, और संशयको दूर करना, इनसे युक्त तथा इनके प्रतिपादक वचनोंको बोलनेवाला पुरुष ही प्रतिपादित किया जाता है | प्रतिपाद्य शिष्यके उक्त दश विशेषणोंको शंकाकार इसप्रकार स्पष्ट करते हैं कि जिस शिष्यको संशय उत्पन्न हो चुका है, वही गुरुओं के द्वारा समझाने योग्य है । क्योंकि संशयालु पुरुष ही तत्त्वनिर्णय करानेवाले विशेष प्रश्नसे प्रतिपादक आचार्यके निकट उत्कण्ठा सहित होकर जाया करता है । जो अज्ञानी, मूर्ख, व्युत्पत्तिरहित है, यह समझाया नहीं जा सकता है । जैसे कि दो महीनका बालक, अथवा जो मिथ्या मिनिवेशसे विपर्ययज्ञानी हो रहा है, वह भी उपदेश सुननेका पात्र नहीं है। क्योंकि बह शिष्यके लक्षणसे विरहित है, जैसे कि चोर डाकू आदि। भावार्थ - दोषोंकी तीवता होनेपर इनको सत्यव्रत, अचौर्य, आदिका उपदेश देना व्यर्थ पडेगा तथा अपने संशयको कथन करनेवाले वचनोंको बोलनेवाला प्रतिपाद्य होता है। जो प्रश्नकर्ता अपने संशयको वचनों के द्वारा प्रगट नहीं कर रहा है, ऐसी अवस्था संशय उत्पन्न हुए पुरुषको प्रतिपादक जान नहीं सकता है तो वह समझावेगा किसको है। यदि दिव्यज्ञानी आचार्यने प्रश्नकर्ताका संशय निमित्तज्ञानसे जान भी लिया फिर भी अल्लड शिष्यके प्रति उत्तर कहना अनुचित है। इसमें ज्ञानकी अविनय होती है। अत: अपने संशयको विनयपूर्वक कहता हुआ शिष्य ही उपदेश्य है। परिज्ञातसंशयोपि वचनात् प्रयोजनवान् प्रतिपाधो न स्वसंशयप्रकाशनमात्रेण विनिवृताकांक्षः, प्रयोजनवचनवांश्च प्रतिपाद्यः, स्वप्रयोजनं वचनेनाप्रकाशयतः प्रयोजनवतोऽपि निश्चेतुमशक्यत्वात् । पूर्वपक्षी कह रहा है कि जिस शिष्यका वचनके द्वारा संशय जान मी लिया जावे किंतु उस शिष्यको किसी कार्यकी सिद्धिका प्रयोजन है, तब तो वह समझाया जावेगा, अन्यथा नहीं समझाया जावेगा । अपने संशयको केवल प्रकाशन करके ही जो शिष्य आकांक्षाओंसे रहित हो जाता है, वह गुरुके समझाने योग्य नहीं है । भावार्थ - प्रश्नकर्ता जब उत्तर सुनने के लिए उत्कण्ठित नहीं है, ऐसी दशामें गुरुका प्रयत्न व्यर्थ जावेगा । किसी शिष्यको प्रयोजन है और उस प्रयोजनका अपने वचन द्वारा गुरुके सन्मुख प्रतिपादन कर रहा है, तब तो वह प्रतिपादन करने के लिए गुरुकी कृपाका पात्र बनेगा। किंतु जो माने प्रयोजनको वचनोंसे पकाशित नहीं कर रहा है, वह प्रयोजन
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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