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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ३८७ सुनना, इन कारणों के होनेपर भी किसी किसीके वह जिज्ञासा नहीं होपाती है। यह अन्य व्यभिचार है और उक्त चार कारणोंके न होते हुए भी ऋचित् जिज्ञासा होना देखा जाता है। यह व्यतिरेकव्यभिचार है । ___ यदि आप यों कहेंगे कि कमी कमी कालमें संशय आदि कारणोंसे भी उस जिज्ञासाकी उत्पत्ति देखी जाती है। अतः उनको उस जिज्ञाप्ताका कारण मानेंगे तब तो लोभ, अभिमान, हो, कीर्तिकी अभिलाषा, लौकिक ऋद्धि सिद्धियोंकी प्राप्ति आदि कारणोंसे भी उस जिज्ञासाका उपजना देखा जाता है । अत: उन लोभादिकोंको भी उस जिज्ञासाका कारणपना मान लो। बास्तवम य संशयादिक और रूम आदिक गिया कारण है । उस जाननेकी इच्छाको उपजानेमें अन्वय व्यतिरेकके नियमो कार्यको करनेवाले अंतरंग फारण तो बडे पापोंका नाश होना ही है । अर्थात ज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम और वर्शनमोहनीय कर्मका उपशम आदि ही जिज्ञासाको पैदा करनेमें आभ्यंतर कारण है और जिज्ञासा उत्पन्न करनेमें नियमयुक्त बहिरंगकारण काल, देश, सुकुलता, शुद्धता आदिक हैं । यह सिद्धांत तो युक्तियों से पूर्ण है। क्योंकि उन कारणों के बिना उस जिज्ञासाका उत्पाद होना नहीं देखा जाता है । कालादि न नियतं कारणं बहिरंगत्वात संशयलोभादिवदिति चेत्र, तस्यावश्यमपेक्षणीयत्वात्, कार्यान्तरसाधारणखात्तु बहिरंग तदिष्यते, ततो न देतो. साध्याभावेऽपि सद्भावः संदिग्धो निश्चितो वा, यतः संदिग्धव्यतिरेकता निश्चितव्यभिचारिखा वा भवेत् । आक्षेपकर्ता कहता है कि काल, देश, आदि भी अन्य व्यतिरेकके नियमको लेकर नियत कारण नहीं हैं, क्योंकि वे कार्यके बहिर्भूत अङ्ग हैं । जैसे कि संशयादिक और लोभ आदिक नियत कारण नहीं हैं। आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकार कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि कार्यकी उत्पतिमें उन काल आदिकी अवश्य अपेक्षा होती है । दूसरे कार्यों में भी तो साधारण होकर वे सहायक हो रहे हैं। अतः उनको बहिरंगकारण माना जाता है। इसलिए साध्यके न रहनेपर भी हेतुके सद्भावका संदेह नहीं है, जिससे कि व्यतिरेकव्यभिचारका संशय भी हो सके। और साध्यके न रहनेपर हेतुके सद्भावका निश्चय भी नहीं है, जिससे कि निश्चयसे व्यभिचार दोष हो जावे । भावार्थ--काल आदि बहिरंग कारणों के साथ मी जिज्ञासाका समीचीन व्यतिरेक बन जाता है। जो कि कार्यकारणभाषका प्रयोजक है। अतः विपक्षमें वृत्तिानके संशय और निश्चय करनेसे आनेवाले व्यभिचार दोष यहां नहीं हैं। ननु च स्वप्रतिबंधकाधर्मप्रक्षयाकालादिसहायादस्तु श्रेयापये जिज्ञासा, तद्वानेव तु प्रतिपाद्यते इत्यसिद्धम् । संशयप्रयोजन जिज्ञासाशक्यप्राप्तिसंशययुदासतदूचनवतः प्रतिपायत्वात् । तत्र संशयितः प्रतिपाद्यस्तत्वपर्यसाधिना प्रश्नविशेषेणाचार्य प्रन्युपसर्पकत्वात्,
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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