________________
३८६
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सबके विद्यमान है तथा च सभी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदिक जीव मुक्तिमार्गको जिज्ञासावाले या मुक्तिमार्गमें लगे हुए दीखना चाहिये । केवल भव्य ही मुक्तिमार्गमें लगे हुए क्यों दीखते है ।
आम्नायादेव श्रेयोमार्गजिज्ञासेत्यन्ये, तेषा--" मथातो धर्मजिज्ञासे" ति सूत्रेऽयशब्दस्यानन्तर्यार्थ वृत्तेरथंदमधीत्याम्नायादित्याम्ना यादधातवेदस्य वेदवाक्यार्थेषु जिज्ञासाविधिरवगम्यत इति व्याख्यानम् , तदयुक्तम् , सत्यप्याम्नायश्रवणं तदर्थावधारणेऽभ्यासे च कस्यचिद्धर्मजिज्ञासानुपपत्तेः । कालान्तरापेक्षायां तदुत्पचौ सिद्ध कालादिलब्धी तत्प्रतिय. न्धकपापापायाच्च श्रेय:पथे जिज्ञासायाः प्रवर्तनम् ।
अनादि काल से आये हुए वेदवाक्योसे ही मोक्षमार्गके जाननेकी इच्छा होती है। इस प्रकार अन्य मीमांसक कह रहे है । उनके यहां भी मीमांसादर्शनके " इसके अनन्तर यहाँसे धर्मके आननेकी इच्छा है," इस सूत्रका जो यह व्याख्यान किया गया है कि अथ शब्दकी व्यवधान रहित उत्तर क्षणमें होनेवाले अर्थमं वृधि है । प्रारम्भमें इस वेदको पढकर अर्थात् वेदवाक्योंकी धारासे इस प्रकार पढलिया है वेद जिसने, उस पुरुषके वेदवाक्यके याच्यामि जाननेकी इच्छा का विधान जाना जाता है, वह व्याख्यान करना अयुक्त हो जायेगा। भावार्थ-वेद पढने के बाद इच्छा होती बतायी है और आप पूर्व आम्नात वेदसे ही इच्छा होना मान बैठे हैं। हम देखते हैं कि परिपाटीसे प्रास वेदका श्रवण करते हैं और उसके अर्थका भी निर्णय करते हैं । ज्ञान और कियाका अभ्यास मी करते हैं। ऐसा होनेपर भी किसी किसी पुरुषके धर्म की जिज्ञासा नहीं होने पाती है।
यदि मीमांसक यों कहेंगे कि तत्काल जिज्ञासा भले ही न हो किंतु सुनते निर्णय करते और अभ्यास करते करते कुछ काल बीत जानेपर विशिष्ट कालकी सहकारिताकी अपेक्षा होनेपर बद्द जिज्ञासा उत्पन्न हो जाती है, ऐसा माननेसे तो हमारी बात सिद्ध हुयी ! काल, देश आदिकी प्राप्ति होनेपर और उसके पतिबंधक पारोंके दूर हो जानेसे कल्याणमार्गमे जिज्ञासाकी प्रवृति करना बना ।
संशयप्रयोजनदुःखत्रयाभिघाताम्नायश्रवणेषु सत्स्वपि कस्यचित्तदभावादसत्स्वपि भावात् कदाचिसंशयादिभ्यस्तदुत्पत्तिदर्शनात्तेषां तत्कारणत्वे लोभाभिमानादिभ्योऽपि सत्मादुर्भावावलोकनातेषामपि तत्कारणत्वमस्तु नियतकारणत्वं तु तज्जनने बृहत्पापापायसैवांतरंगस कारणत्वं बहिरंगस्य तु कालादेरिति युक्तम्, तदभावे तजननानीक्षणात् ।
___ अब तक जो जिज्ञासाकी प्रवृत्ति के कारण बतलाये हैं, उनमें अन्य व्यभिचार व्यतिरेक भ्यमिचार दोनों ही दोष आसे हैं। संशय और प्रयोजन तथा तीनों दुःखोंसे ताइन एवं आम्नायका