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________________ तत्त्वार्भचिन्तामणिः ३८५ है, इस्यादि बातोंके जाननेकी एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदिक जीवोंके इच्छा ही नहीं होती है। किन्तु कर्मों का मन्द उदय होनेपर ही में कौन हूं ! मेरा धर्म क्या है ! स्वभाव प्राप्त करनेका निमित्त क्या है ? ऐसी इच्छाएं संज्ञी जीवोंके होती हुयी देखी जा रही हैं। नहि क्वचित्संशयमात्रात् कचिज्जिज्ञासा, तत्पतिबन्धपापाक्रान्तमनसः संशयमात्रेणावस्थानात् । किसी पदार्थ केवल संशय हो जानेसे ही किसी आत्मा जिज्ञासा होती हुयी नहीं देखी गयी है, क्योंकि जिस जीवका अंत:करण कल्याभार्गका पतिबंध करनेवाले पापोंसे घिर रहा है, वे जीव केवल संशयको लेकर बेटे रहेंगे। तीव्र पापका उदय होनेपर उनके संशयकी निवृत्ति भी नहीं हो सकती है, कल्याणमार्गको जाननेकी इच्छा होना तो बहुत दूर है । सति प्रयोजने जिज्ञासा तत्रेत्यपि न सम्पक्, प्रयोजनानन्तरमेव कस्यचिन्यासंगवस्तदनुपपत्तेः। किसी पदार्थके प्रयोजन होनेपर उस पदार्थमें जाननेकी इच्छा आमाके उत्पन्न हो जाती है, यह कहना मी समीचीन नहीं है। क्योंकि किसी पदार्थका प्रयोजन होनेपर उसके अव्यवहित उत्तर कालमै ही यदि किसी एक पुरुषका चित्त इधर उधर कार्यान्तरमें लग जावे, यों तो वह जिज्ञासा नहीं बन सकती है । जैसा कि प्रायः देखा जाता है कि प्रयोजन होनेपर मी यदि चित्तवृति अन्यत्र चली जावे तो उसके जाननेकी इच्छा नहीं होने पाती है। अतः जिज्ञासाका प्रयोजन होना अन्यभिचारी कारण नहीं है । पराधीन सेवक, पशु, पक्षियों में प्रयोजन होनेपर भी आननकी इच्छा नहीं होपाती है । प्रयोजन नहीं होनेपर मी ठलुआ पुरुषोंके जिज्ञासायें उपजती रहती हैं। "दुखत्रयाभिषाताजिज्ञासा तदपघातके हेतौ " इति केचित् , तेऽपि न न्यायवादिना सर्वसंसारिणां तत्प्रसंगात् , दुःखत्रयाभिघातस्य भावात् । ___ आध्यालिक आधिदैविक, और आधिभौतिक तीन दुःखोंसे पीडित होजानेसे उन दुःखोंका नाश करनेवाले कारणोंके जाननेकी इच्छा उत्पन्न होती है । शारीरिक दुःखका रसायन जड़ी बूटी आदिके सेवनसे और मानस दुःखोंका सुंदर स्त्री, खाना पीना आदिसे तथा आधिमौतिक दुःखका नीतिशास्त्र के अभ्याससे या उपद्रवरहित स्थानपर रहने आदिसे उच्छेद हो जायगा ऐसी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि एकातरूपसे अनन्तकाल तकके लिये दुःखोंका उच्छेद करना हमको आवश्यक है जो रसापान आदि कारणोंसे नहीं हो सकता है। इस प्रकार कोई कपिलमतानुयायी कह रहे हैं वे भी न्यायपूर्वक कहनेवाले नहीं हैं। यो तो सम्पूर्ण संसारी जीवोंके उस जिज्ञासाके होनेका प्रसंग आग है। क्योंकि तीनों दुःखोसे पीडित होना
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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