________________
३९२
सत्त्वार्थचिन्तामणिः
I
शरीरमें परत: ऐसा विशेषण दे रखा है । जो दूसरोंसे मोक्षमार्गको समझता है वह जिज्ञासावान् अवश्य है। जहां अभीष्ट हेतु ठहर जायगा, वहां साध्य अवश्य पाया जायगा । पुनः इस अनुमानमै व्यभिचार उठाया जाता है कि दूसरेसे पापमार्ग को जाननेवाले पुरुषसे हेतु व्यभिचारी है, क्योंकि दूसरेसे पापका उपदेश सुननेवाले पुरुषमें हेतु रह जाता है और मोक्षमार्गकी जिज्ञासा रूप साध्य नहीं रहता है। आचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि पापमार्गको जाननेवाले हमारे माने गये मोक्षमार्गको समझनारूप हेतु स्वरूप धर्मका अभाव है। भावार्थ हेतुके शरीरमें भीतर पडा हुआ मोक्षमार्गको समझनारूपी धर्म वहां नहीं घटता है । उसी कारण से हेतु विरुद्ध वामास भी नहीं है । क्योंकि कल्याणमार्ग की जिज्ञासावाले जीवके बिना दूसरोंसे मोक्षमार्गको समझने वालापन कहीं भी नहीं सम्भवता है । अर्थात् व्यभिचार दोषके दूर हो जानेसे ही प्रायः विरुद्ध दोष दूर हो जाता है । विरुद्ध और व्यभिचार दोष दोनों भाईके समान है । साध्याभाबवान देतुका न रहनारूप अन्वयव्याप्तिको व्यभिचार दोष बिगाड़ देता है और साध्यभावके व्यापकीभूत अभावका प्रतियोगीपन हेतुमें रहना रूप व्यतिरेकव्याप्तिको विरुद्धदोष विगाढ देता है, इतना ही अंतर है । कहीं व्यभिचारके स्थल और विरुद्ध स्थलों में भी अंतर पड जाता है। इस कारण यह साधन या अनुमान दूसरे प्रमाणोंसे सिद्ध है । अतः उस कल्याणमार्गकी जिला सावाका और फालधि आदिसे युक्त ज्ञानोपयोगी आत्मा ही महास्मा गुरु लोगोंको समझाने योग्य है। जो जिज्ञासावान् नहीं है अथवा जो पूर्वमें कहे गये अनुसार पापभार और मोहभारसे रहित होकर कल्याणसे युक्त होनेवाला चेतनस्वरूप आत्मा नहीं है, वह उपदेशका भी पात्र नहीं है । ऐसे मोही, दूर मध्य अथवा अभव्यों को भी यदि मोक्षमार्गका प्रतिपादन किया जावेगा तो प्रतिपादक गुरु सज्जनोंको विचारशालीपन न होनेका प्रसंग भाता है । भावार्थ- पात्रका विचार न कर जो ऊपरपनके समान उपदेश दे रहे हैं, के प्रेक्षावान् नहीं हैं। जिनवाणीकी भी तो प्रतिष्ठा रखनी है ।
परम करुणया काश्चन श्रेयोमार्गे मतिपादयतां तत्प्रतिपित्सारहितानपि नाप्रेक्षावत्वमिति चेन, तेषां प्रतिपादयितुमशक्यानां प्रतिपादने प्रयासस्य विफलत्वात्, तत्मतिपित्सासुत्पाद्य तेषां तैः प्रतिपादनात् सफलस्तत्प्रयासः इति चेत्, तर्हि तस्प्रतिपित्सावानेव तेषामपि प्रतिपाद्यः सिद्धः ।
अत्यंत बढी हुयी दयासे उस जिज्ञासा से रहित और मोही भी किन्ही किन्ही जीवोंके प्रति कल्याणमार्गको प्रतिपादन करनेवाले हितैषी गुरुओंको अविचारवानूपनेका प्रसंग नहीं होता है। यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि जो जीव शक्तिहीन हैं, उपदेष्टाओं के द्वारा समझाने के लिए समर्थ नहीं हैं, जो समझना भी नहीं चाहते हैं; उनको प्रतिपादन करने में वक्ताका परिश्रम व्यर्थ पडेगा ।
हां, यदि आप यों कहे कि उन जीवोंको कल्याणमार्गके समझने की इच्छाको उत्पन्न कराकर उन हितैषियों के द्वारा प्रतिपादन करनेसे वक्ताका वह प्रयत्न सार्थक हो जावेगा, ऐसा कहो तब वो